पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४९३

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स्थिति प्रकरण।

भोक्तव्य, सुख, दुःख अज्ञानी मोह से अध्यारोप करते हैं और कुछ नहीं। ज्ञानवान् को बन्ध, मोक्ष, सुख, दुःख कुछ नहीं भासता, क्योंकि वह असंसक्त मन है। जिसका मन आसक्त है उसको नाना दृश्य भासता है और ज्ञानवान का केवल आत्मसत्ता, जो एक द्वैत कलना से रहित है, भासती है। जैसे जल से तरङ्ग भिन्न नहीं तैसे ही आत्मा से जगत् भिन्न नहीं। न कोई बन्ध है, न कोई मोक्ष है, न कोई बाँधने योग्य है, अज्ञानदृष्टि से दुःख है, बोध से लीन हो जाते हैं। बन्ध और मोक्ष संकल्प से कल्पित मिथ्यारूप हैं। तुम इस मिथ्या कल्पना अनात्म अहंकार को त्यागके आत्मा निश्चय करो और धीर बुद्धिमान होकर प्रकृत आचार को करो तब तुम्हें कुछ स्पर्श न करेगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे मोक्षोपदेशो नाम अष्टत्रिंशत्तमस्सर्गः॥३८॥

रामजी ने पूछा, हे भगवन्। सच्चिदानन्द, अद्वैत, निर्विकारादिक गुणों से सम्पन्न ब्रह्मत्त्व में अविद्यमान विचित्र जगत् और अविद्या कहाँ से आई? वशिष्ठजी बोले, हे राजपुत्र! यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मस्वरूप है और ब्रह्मसत्ता सर्वशक्ति है, इस कारण दृश्यरूप हो रहा है और सत्य, असत्य, एक, अद्वैत आदिक विश्वरूप भासता है जैसे जल में जल उल्लासरूप नाना प्रकार के तरङ्ग, बुबुदे, आवृत्ताकार हो भासता है तैसे ही चिद्घन में चिद्घन सर्वशक्ति और सर्वरूप होकर फुरता है। कहीं कर्मरूप, कहीं वाणीरूप, कहीं गुङ्गेरूप, कहीं मनरूप और कहीं भरण, पोषण और नाश का कारण होता है। सब पदार्थों का बीज उत्पन्नकर्ता ब्रह्मसत्ता है, जैसे समुद्र से तरङ्ग उपजकर उसी में लय हो जाते हैं तैसे ही सब पदार्थ उपजकर ब्रह्म में लय होते हैं। रामजी ने फिर पूछा कि हे भगवन्! आपके वचन का उच्चार प्रकट है तो भी कठिन और प्रति गम्भीर है, इनका तोल नहीं पाया जाता और इनका यथार्थभाव में पा नहीं सकता। कहाँ मन संयुक्त षटूइन्द्रियों की वृत्तियों से और सब पदार्थ की रचना से रहित स्वरूप और कहाँ जगत्? जो पदार्थ जिससे उपजता है वह उसी का रूप होता है। जैसे दीपक से उपजा दीपक, मनुष्य से मनुष्य और अग्नि से