पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४९५

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स्थिति प्रकरण।

उसको महानरक में डालता है जो प्रबुद्ध है उसकी भोग की इच्छा क्षीण हो जाती है और वह निष्काम पुरुष है इसको उससे अविद्यारूपी मल नहीं रहता और उसको उपदेश करने की आवश्यकता नहीं। इस प्रकार विचार कर अज्ञानरूपी तम के नाशकर्ता और ज्ञान के सूर्य भगवान वशिष्ठजी ने रामजी के प्रति कहा। वशिष्ठजी बोले, हे राघव! कलनारूप कलङ्क ब्रह्म में है वा नहीं है, यह मैं तुमसे सिद्धान्तकाल में कहूँगा अथवा तुम आपही जानोगे। ब्रह्मसत्ता सब शक्तिरूप सर्वव्यापक (सर्वगत) है और सब उसी में रचे हैं। जैसे इन्द्रजाली विचित्र शक्ति से अनेकरूप रचता है और सत्य को असत्य और असत्य को सत्य कर दिखाता है तेसे ही आत्मा मायावी परम इन्द्रजाली अघटन घटना है अर्थात् जो न बने उसको भी बनाती है वह अपनी शक्ति से पहाड़ को गढ़ा करता है बेल में पाषाण लगाता है और पाषाण में बेल लगाता है। वन की पृथ्वी को आकाश करता है और आकाश को पृथ्वी करता है, और आकाश में वन लगाता है—जैसे आकाश में गन्धर्वनगर भासता है, वन को आकाश करता है—जैसे पुरुष की छाया आकाश हो जाती है और आकाश को पृथ्वीभाव प्राप्त करता है—जैसे रत्न की कन्दरा पृथ्वी पर हो और उसमें आकाश का प्रतिविम्ब पड़े। हे रामजी! यह विचित्ररूप दृश्य जो तुमसे कहा है सोशुद्ध अव्यक्ततत्त्व—अचैत्य—चिन्मात्र में जो चेतनता का लक्षण जानना है उसी ने रचा है और कैसा रचा है कि वही चित्त संवेदन फुरने से जगरूप हो भासता है। उसमें सब प्रकार और सर्वरूप वही है जो एकरूप अविद्यमान है तो हर्ष, शोक और आश्चर्य किसका मानिये? यह अन्यथा कोई नहीं, एकरूप है। इसी कारण हमको समताभाव रहता है और हर्ष, शोक, आश्चर्य और मोह नहीं प्राप्त होता। ममता और चपलता आदिक विकार हमको कोई नहीं होता और ऐसे हम कदाचित् जानते ही नहीं। देश, काल, वस्तु जगत् अवसान को प्राप्त हो भासते हैं और उनका विपर्यय होना भी भासता है पर वह अपने स्वभाव में स्थित है, क्योंकि यह दृश्य उनको अपने स्वरूप का आभास फुरता भासता है। जो कुछ दृश्य प्रपञ्च है वह सत्य वित्त