पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४९६

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योगवाशिष्ठ।

संवित् की स्पन्द कला से फुरता है और नाना प्रकार देश, काल क्रिया और द्रव्य होकर भासता है। उसको आत्मसत्ता किसी यत्न से नहीं रचती बल्कि स्वाभाविक ही फुरने से फुरते हैं। जैसे समुद्र तरङ्गों को किसी यत्न से नहीं उपजाता और लीन करता स्वाभाविक ही चमत्कार फुरता और लीन होता है, तैसे ही आत्मा में स्वाभाविक ही सृष्टि फुरती है और लय होती है। जैसे समुद्र और तरङ्ग में कुछ भेद नहीं तैसे ही आत्मा और जगत् में कुछ भेद नहीं—वही रूप है। जैसे दूध घृतरूप है। घट पृथ्वी रूप है और रेशम तंतुरूप है तैसे ही जगत् आत्मरूप है जैसे वटधान्य वृक्षरूप हो भासता है और समुद्र तरङ्गरूप हो भासता है तैसे ही आत्मा जगत् रूप हो भासता है। हे रामजी! इन दृष्टान्तों का एक अङ्ग लेना, कारण कार्य भाव न लेना क्योंकि आत्मा में न कोई कर्ता है न कोई भोक्ता है और न कोई विनाश होता है केवल प्रात्त्मतत्व, साक्षी, निरामय और अद्भुत अपने आप स्वभावसत्ता में स्थित है। यह जगत् आत्म का प्रकाश है, जैसे दीपक और सूर्य का प्रकाश। जैसे पुष्प का स्वभाव सुगन्ध है तैसे ही आत्मा का स्वभाव जगत् है, किसी कारण कार्य से नहीं हुआ। जगत् आत्मा का स्वभाव आभासरूप है और आत्मा से कुछ भिन्न नहीं हुआ। जैसे पवन का स्वभाव स्पन्दरूप है और जब निःस्पन्द होता है तब नहीं भासता तैसे ही आत्मा में संवेदन फुरता है तव जगत् भासता है और जब लय होता है तब जगत् नहीं भासता। जगत् कुछ नहीं है न सत् है और न असत् है। कहीं प्रकट भासता है और कहीं अप्रकट भासता है और नाना प्रकार का विचित्ररूप भासता है। जैसे वन में पुष्प का रस होता है पर उनके उपजने और नष्ट होने से न वन उपजता है और न नष्ट होता है तैसे ही आत्मसत्ता जगत् के उपजने और नष्ट होने से रहित है वास्तव में उपजा कुछ नहीं इससे आत्मा ही अपने आपमें स्थित है पर असम्यकज्ञान से जगत् भासता है और अनन्त शाखाओं से फैल रहा है, इसलिये इसको ज्ञानरूपी कुठार से काटो तब सुखी होगे। जगतरूपी वृक्ष का असम्यक्ज्ञान बीज है, शुभ अशुभरूपी फूल है और आकाशरूपी बेलि से वेष्टित है, दुःखरूपी उसकी