पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४९७

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स्थिति प्रकरण।

शाखा है, भोग और जरारूपी फल हैं और तृष्णारूपी लता से घिरे हुए भासते हैं। ऐसे संसाररूपी वृक्ष को आत्मविवेकरूपी कुठार से यत्न करके काटकर मुक्त हो। जैसे गजपति अपने बल से बन्धन तोड़के सुखचित्त विचरता है तैसे ही तुम भी निर्बन्ध होकर विचरो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे सर्वैकताप्रतिपादनन्नाम एकोनचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥३९॥

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! ये जो जीव हैं वे ब्रह्म से कैसे उत्पन्न हुए और कितने हुए हैं, मुझसे विस्तारपूर्वक कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे महाबाहो! जैसी विचित्रता से ये उपजते, नाश होते, बढ़ते और स्थित होते हैं वह क्रम सुनो। हे निष्पाप राम! शुद्ध ब्रह्मत्व की वृत्ति जो चेतनशक्ति है सो निर्मल है, जब वह स्फुरणरूप होती है तब कलनारूप धनभाव को प्राप्त होती और संकल्परूप धारण करती है, और फिर तन्मय होकर मनरूप होती है। यह मन संकल्पमात्र से जगत् को रचता है और विस्तारभाव को प्राप्त करता है, जैसे गन्धर्व नगर विस्तारको प्राप्त होता है तैसे ही मन से जगत् का विस्तार होता है। ब्रह्मदृष्टि को त्याग के जो जगत् रचता है सो सब आत्मसत्ता का चमत्कार है। हमको तो सब आकाशरूप भासता है पर दूरदर्शी को जगत् भासता है। जैसे चित्तसंवित् में संकल्प फुरता है तैसा ही रूप होता है। प्रथम ब्रह्मा का संकल्प फुरा है इस लिये उस चित् संवित् ने आपको ब्रह्मारूप देखा और ब्रह्मारूप होकर जब जगत् को कल्पा तब प्रजापति होकर चतुर्दश प्रकार के भृतजात उत्पन्न किये, वास्तव में सब ज्ञाप्तिरूप हैं। उसके फुरने से जो जगत् भासता है सो चित्तमात्र शून्य आकाशरूप है। वास्तव में शरीर कुछ नहीं संकल्प मात्र है स्वप्ननगर भ्रान्ति से भासते हैं। उस भ्रान्तिरूप जगत् में जो जीव हुए हैं और कोई मोह से संयुक्त है, कोई अज्ञानी है, कोई मध्यस्थित हैं और कोई ज्ञानी उपदेष्टा है, जो कुछ भृतजात हैं वे सब आधिव्याधि दुःख से दीन हुए हैं। उनमें कोई ज्ञानवान् सात्त्विकी हैं और कोई राजसी सात्त्विकी हैं। जो शान्तात्मा पुरुष हैं उनको संसार के दुःख कदाचित् स्पर्श नहीं करते वे सदा ब्रह्म में स्थित हैं। हे रामजी!