पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५००

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योगवाशिष्ठ।

यथार्थ है और जैसे कहा है तैसे ही है। यह वचन असमर्थ भी नहीं, क्योंकि जिसके हृदय में ठहरें उसको आत्मपद में प्राप्त करें, विरूप भी नहीं है, क्योंकि इनका रूपफल प्रकट है जिसके धारण से संसार के सब दुःख मिट जाते हैं और पूर्वापर विरोध भी नहीं है कि प्रथम कुछ और कहा और पीछे कुछ और कहा। जो कुछ मैंने कहा है सो यथार्थ कहा है परन्तु ज्ञानदृष्टि से जब तुम्हारा हृदय निर्मल होगा और विस्तृत बोधसत्ता हृदय में प्रकाशेगी तब तुम मेरे वचनों के तात्पर्य को हृदय में ठीक जानोगे। तुमको जो मैं उपदेश करता हूँ सो वाच्य वाचक शास्त्र के सम्बन्ध जताने के निमित्त करता हूँ। जब इन युक्त वचनों से तुम जानोगे तब तुम्हें अद्वैतसत्ता निर्मल भासेगी और जो कुछ वाच्य-वाचक शब्द अर्थ रचना है उसको त्याग करोगे। ज्ञानवान् को सदा परमार्थ अद्वैत सत्ता भासती है आत्मा में इच्छादिक कल्पना कुछ नहीं, निर्दुख निर्द्वन्द है और जगतरूप होकर स्थित हुआ है। इस प्रकार मैं तुमको विचित्र युक्ति से कहूँगा। जब तक सिद्धान्त उपदेश की आवश्यकता है तब तक आत्मसत्ता नहीं प्रकाशती जब आत्मबोध होगा तब आप ही जानोगे। अज्ञानरूपी तम वाकूविस्तार बिना शान्त नहीं होता। इस कारण मैं तुमको अनेक युक्तियों से कहूँगा। जब तक सिद्धान्त उपदेश का अवकाश है। हे रामजी शुद्ध आत्मसत्ता के आश्रय जो संवेदना भास फुरता है उसी का नाम अविद्या है। वह दो रूप रखती है—एक उत्तम और दूसरा मलिन। जो स्पन्दकला अविद्या के नाश निमित्त प्रवर्तती है वह उत्तम है और विद्या भी उसी का नाम है और सब दुःख नाश करती है और जो संसार की ओर फुरती है वह अविद्या है अर्थात् आत्मा की ओर फुरती है सो विद्या है और दृश्य की ओर जो फुरती है वह अविद्या है पर दोनों स्पन्दरूप हैं। इससे अविद्या का नाश करो। जैसे ब्रह्मअस्त्र से ब्रह्मअस्त्र शान्त होता है, विष को विष नाश करता है और शत्रु को शत्रु मारता है, तैसे ही विद्या से अविद्या नाश होती है। इसी प्रकार तुम भी इनको नाश करो तब सुखी होगे। विचार से जब इसका नाश होता है तब जानी नहीं जाती कि कहाँ गई, जैसे