पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५०१

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स्थिति प्रकरण।

दीपक से अन्धकार देखिये तो नहीं दीखता कि कहाँ गया। बड़ा आश्चर्य है कि जीव का ज्ञान इसने ढाँप लिया है आत्मसत्ता सदा अनुभव और उदयरूप है, पर अज्ञानी जीव को नहीं भासती। जब तक अविद्या नहीं जानी तब तक फरता है और जब जानी तब नहीं जानता कि कहाँ गई इससे भ्रममात्र सिद्ध है। बड़ा आश्चर्य है कि माया ने संसार चक्र बाँध रक्खा है और सत्य की नाई है पर असत्य है। बुद्धिमानों को भी यह नाशकर छोड़ती है तो जीवों का क्या कहना है। निरन्तर अभेदरूप आत्मा में विद्या भेद कल्पना कोई नहीं, जिस पुरुष ने संसार माया को ज्यों का त्यों जाना है वही पुरुषोत्तम है। जिसको यह भावना हुई है कि अविद्या परमार्थ से कुछ नहीं, असत्यरूप है सो ज्ञानवान है। जो कुछ जानने योग्य है वह उसने जाना है—इसमें संशय नहीं जब तक तुम स्वरूप में न जागो तब तक मेरे वचन में आसक्त बुद्धि करो और निश्चय धारो कि अविद्या नाशरूप है और है नहीं। जो कुछ जगदृश्य भासता है वह मन का मनन असत्रूप है जिसको यह निश्चय हुआ है वही पुरुष मोक्षभागी है। यह जो मन का फुरनारूप जगत् दृश्यभाव को प्राप्त हुआ है वह सब ब्रह्मरूप है जिसके हृदय में यह निश्चय स्थित है वही पुरुष मोक्षभागी है और जिसको चराचर जगत् में दृढ़ भावना है वह बन्ध है—जैसे पक्षी जाल में बन्धायमान होता है। हे रामजी! संपूर्ण जीव इस संसार की सत्यदृष्टि से बाँधे हुए हैं। सब जगत् स्वप्न भ्रान्तिरूप है पर उसमें जिसको असत् बुद्धि है अथवा सत्ब्रह्मबुद्धि है वह आसक्त होकर संसारदुःख में नहीं डूबता और जिसको अनात्मधर्म देहादिक में भावना है और स्वरूप का बोध नहीं वह हर्ष-शोक आपदा को प्राप्त होता है जिसको स्वरूप का बोध है और अनात्मधर्म का त्याग हे उसको संसाररूपी अविद्या नहीं रहती और दुःख विकार स्पर्श नहीं करता। जैसे जल में धूल नहीं उड़ती तैसे ही उस महात्मा पुरुष के चित्त में दुःख उदय नहीं होते। ज्ञानवान पुरुष के हृदय में जगत् के शब्द अर्थ का रङ्ग नहीं चढ़ता। जैसे सूत बिना वस्त्र नहीं होता—तन्तु ही पटरूप है तैसे ही आत्मा बिना जगत्