पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४९६
योगवाशिष्ठ।

नहीं होता—जगत् आत्मारूप है। ऐसे जानके जो व्यवहार में वर्तता है वह पुरुष मानसी दुःख को नहीं प्राप्त होता और जो अविद्या से सार में भटकता है वह आत्मतत्त्व को नहीं पा सकता और विद्यमान आत्मा उसको नहीं भासता। केवल आत्मज्ञान से भविद्या का नाश होता है, जिसको आत्मज्ञान हुआ है वह अविद्यारूपी नदी को तर जाता है। आत्मसत्ता में प्राप्त हुए अविद्या क्षीण हो जाती है, जिनको अविद्यारूपी संसार के पदार्थ की इच्छा उदय होती है वे अविद्यारूपी नदी में बह जाते हैं। हे रामजी! यह अविद्या बड़े मोह और भ्रम को दिखाती है। जब यह दृढ़ हो कर स्थित होती है तब तत्पद को घेर लेती है, इससे तुम यह न विचारो कि अविद्या कहाँ से उपजी है और कौन इसका कारण है यही विचारो कि यह नष्ट कैसे होती है। इसके क्षय का उद्यम करो, जब यह नष्ट होगी तब इसकी उत्पत्ति भी जान लोगे कि इस प्रकार उपजी है और यह इसका स्वरूप है यह कारण है और यह कार्य है। हे रामजी! अविद्या वास्तव में कुछ है नहीं, अविचारसिद्ध है और विचारदृष्टि से नष्ट हो जाती है, तब जानी नहीं जाती कि कहाँ गई, पर जब स्वरूप विस्मरण होता है तब उपजकर दृढ़ होती है और फिर दुःख देती है। इससे बल करके इसका नाश करो। बड़े बड़े शूरमा हुए हैं पर उनको भी अविद्या ने व्याकुल किया है, ऐसा बुद्धिमान् कोई नहीं जिसको अविद्या ने व्याकुल नहीं किया। अविद्या सर्वरोगों का मूल है, यत्न करके इसकी औषध करो कि जिससे जन्म-दुःख कुहिरा न प्राप्त हो। जो कुछ आपदा है उसकी यह अधिष्ठाता सखी है, अज्ञानरूपी वृक्ष की बलि है और अनर्थरूपी अर्थ की जननी है। ऐसी अविद्यारूपी मलीनता को दूर करो जो मोह, भय, आपदा और दुःख की देनेवाली है और हृदय में मोह उपजा कर जीवों को व्याकुल करती है। अज्ञान चेष्टा से इसकी वृद्धि होती है जव अविद्यारूपी संसारसमुद्र से पार होगे तव शान्ति होगी।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे अविद्याकथनन्नाम एकचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४१॥