पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५०४

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योगवाशिष्ठ।

को विस्मरण करके देश, काल, क्रिया द्रव्य को मानती है संकल्प के धारने से कल्पना भाव को प्राप्त होती है और विकल्प कल्पना से क्षेत्रज्ञरूप होती है शरीर का नाम क्षेत्र है। और शरीर को भीतर बाहर जानने से क्षेत्रज्ञ नाम होता है। वह क्षेत्रज्ञ चित्रकला अहंभाव की वासना करती है और उस अहंकार से आत्मा से भिन्नरूप धारती है फिर अहंकार में निश्चय कलना होती है उसका नाम बुद्धि होता है। अहंभाव से जब निश्चय संकल्प कलना होती है उसका नाम मन होता है, वही चित्तकला मनभाव को प्राप्त होती है। जब मन में घन विकल्प उठते हैं तब शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की भावना से इन्द्रियाँ फुर आती हैं और फिर हाथ पाँव प्राण संयुक्त देह भासि आती है। इस प्रकार जगत् से देह कोपाकर जीव जन्म मृत्यु को प्राप्त होता है, वासना में बँधा हुआ दुःख के समूह को पाता है, कर्म से चिन्ता में दीन रहता है और जैसे कर्म करता है तैसे ही आकार धारता है। जैसे समय पाके फल परिपकता को प्राप्त होता है तैसे ही स्वरूप प्रमाद से जीव दृश्यभाव को प्राप्त होता है, आपको कारण, कार्य मानके, अहंभाव को प्राप्त होता है, निश्चय वृत्ति से बुद्धिभाव को प्राप्त होता है और संकल्प संयुक्त मनभाव को प्राप्त होता है। वही मन तव देह और इन्द्रियाँ रूप होकर स्थित होता है और अपना अनन्त रूप भूल जाता है और परिच्छिन्न भाव को ग्रहण करके प्रतियोग और व्यवच्छेदभाव भासता है और तभी इच्छा, मोहादिक शक्ति को प्राप्त होता है। जैसे समुद्र में नदियाँ प्रवेश करती हैं तैसे ही सब आपदा और दुःख आय प्राप्त होने हैं। इस प्रकार अहंकार अपनी रचना से आप ही बन्धवान होता है जैसे कुसवारी अपने स्थान को रचकर आप ही बन्धवान होती है। बड़ा खेद है कि मन आप ही संकल्प से दृश्य को रचता है और फिर उसी देह में आस्था करता है, जिससे आप ही दुःखी होता है, भीतर से तपता रहता है और आपको बन्धायमान करसंसार जङ्गख में अविद्यारूप आशाको लेके फिरता है। अपने ही सकल्पकलता से तन्मात्रा और देह हुई है और उसमें अहं प्रतीति होती है। जैसे जल में तरङ्ग में होते हैं तैसे ही देहादिक उदय हुए