पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५०५

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स्थिति प्रकरण।

है और उससे बँधा हुआ जीव दुःखित होता है, जैसे सिंह जंजीर से बाँधा जावे। एकस्वरूप है वही फुरने के वश से नाना भाव को प्राप्त हुआ है, कहीं मन, कहीं बुद्धि, कहीं अहंकार, कहीं ज्ञान, कहीं किया, कहीं पुर्यष्टक, कहीं प्रकृति, कहीं माया, कहीं कर्म, कहीं विद्या, कहीं अविद्या और कहीं इच्छा कहाता है। हे रामजी! इसी प्रकार जीव अपने चित्त से भ्रम में प्राप्त हुआ है और तृष्णारूपी शोकरोग से दुःख पाता है। तुम यत्न करके इससे तरो। जरा-मरण आदिक विचार और संसार की भावना ही जीव को नष्ट करती है। यह भला है, ग्रहण कीजिए, यह बुरा है, त्याग करने योग्य है, इसी संकल्प-विकल्प में ग्रसा अविद्या के रङ्ग से रञ्जित हुआ है, इच्छा करने से इसका रूप संकुच गया है और कर्मरूपी अंकुर से संसाररूपी वृक्ष बढ़ गया है जिससे अपना वास्तव स्वरूप विस्मरण हुआ है और कलना से आपको मलीन जानकर अविद्या के संयोग से नरक भोगता है और संसार भावना रूपी पर्वत के नीचे दबकर आत्मपद की ओर नहीं उठ सकता। संसाररूपी विष का वृक्ष जरामरणरूपी शाखा से बढ़ गया है और आशारूपी फाँस से बाँधे हुए जीव भटककर चिन्तारूपी अग्नि में जलते हैं और क्रोधरूपी सर्प ने जीवों को चर्वण किया है जिससे अपनी वास्तविकता विस्मरण होगई ह। जैसे अपने यूथसमूह से भूला हरिण शोक से दुःखी होता है, पतङ्ग दीपक की शिखा में जल मरता है और मूल से काटा कमल विरूप होता है तैसे ही आशा से क्षुद्र हुआ मूर्ख बड़ा दुःख पाता है। जैसे कोई मूढ़ विष को सुखरूप जानके भक्षण करे तो दुःख पाता है तेसे ही इसको भाग में मित्र बुद्धि हुई है परन्तु वह इसका परम शत्रु है, इसको उन्मत्त करके मूर्च्छा करता और बड़ा दुःख देता है। जैसे बाँधा हुआ पक्षी पिंजरे में दुःख पाता हे तैसे ही यह दुःख पाता है। इससे इसको काटो। यह जगत्जाल असत् और गन्धर्वनगरबत् शून्य है और इसकी इच्छा अनर्थ का कारण है, तुम इस संसारसमुद्र में मत डूबो। जैसे हाथी कीचड़ से अपने बल से निकलता है तैसे ही अपना उद्धार करो। संसाररूपी गढ़े में मनरूपी बैल गिरा है जिससे अङ्ग जीर्ण हो गये हैं। अभ्यास