पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५०७

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स्थिती प्रकरण।

नक्षत्रचक्र हैं, कोई आकाश में वायु हैं, कोई सूर्य की किरणों में और कोई चन्द्रमा की किरणों में रस लेते हैं, कोई जीवन्मुक्त हैं, कोई अज्ञान से भ्रमते हैं, कोई कल्याणभागी चिरपर्यन्त भोग को भोगते हैं, कोई परमात्मा में मिल गये हैं। कोई अल्पकाल और कोई शीघ्र ही आत्मतत्त्व में लय हुए हैं, कोई चिरकाल में जीवन्मुक्त होवेंगे, कोई मूढ़ दुर्भावना करते अनात्मा में भ्रमते हैं, कोई मृतक होकर इस जगत् में जन्मते हैं, कोई और जगत् में जा स्थित होते हैं ओर कोई न यहाँ और न वहाँ उपजते हैं केवल आत्मतत्त्व में लय होते हैं। कोई मन्दराचल, सुमेरु भादि पर्वत होकर स्थित होते हैं, कोई क्षीरसमुद्र, घृतसमुद्र, इतुरस, जल आदिक समुद्र हुए हैं। कोई नदियाँ, तड़ाग, वापिकादि भये हैं, कोई स्त्रियाँ कोई पुरुष और कोई नपुन्सक रूप हुए हैं। कोई मूढ़, कोई प्रबुध, कोई अत्यन्त मूढ़ हुए हैं, कोई ज्ञानी, कोई अज्ञानी, कोई विषयतप्त और कोई समाधि में स्थित हैं। इसी प्रकार जीव अपनी वासना से नाँधे हुए भ्रमते हैं और संसारभावना से जगत् में कभी अधः और कभी ऊर्ध्व को जाकर काम, क्रोधादिक दुःख की पीड़ा पाते हैं। वे कर्म और आशारूपी फाँसी से बाँधे हुए हैं और अनेक देह को उठाये फिरते हैं। जैसे भारवाही भार को उठाते हैं तैसे ही कोई मनुष्य शरीर से फिर मनुष्य शरीर को धारते हैं, कोई वृक्ष से वृक्ष होते हैं और कोई और से और शरीर धारते हैं। इसी प्रकार आत्मरूप को भुलाकर जो देह से मिले हुए वासनारूप कर्म करते हैं वे उनके अनुसार अधः ऊर्ध्व भ्रमते हैं। जिनको आत्मबोध हुआ है वे पुरुष कल्याणरूप हैं और सब दुःखी मायारूप संसार में मोहित हुए है। यह संसाररचना इन्द्रजाल की नाई है, जब तक जीव अपने आनन्दस्वरूप को नहीं पाता और साक्षात्कार नहीं होता तब तक संसारभ्रम में भ्रमता है और जिस पुरुष ने अपने स्वरूप को जाना है और जीवों की नाई त्याग नहीं किया और बारम्बार संसार के पदार्थों से रहित आत्मा की ओर धावता है वह समय पाकर आत्मपद को प्राप्त होगा और फिर जन्म न पावेगा। कोई जीव अनेक जन्म भोगके ज्ञान से अथवा तप से ब्रह्मा के लोक को प्राप्त होते हैं तब परमपद पाते हैं, कोई सहस्र जन्म भोग