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योगवाशिष्ठ।

भोगकर फिर संसार में प्राप्त होते हैं, कोई बुद्धिमान विवेक को भी प्राप्त होते हैं और फिर संसार में गिरते हैं अर्थात् मोक्षज्ञान को पाके फिर संसारी होते हैं, कोई इन्द्रपद पाकर तुच्छ बुद्धि से फिर तिर्यक् पशुयोनि पाते हैं और फिर मनुष्याकार धारते हैं, कोई महाबुद्धिमान ब्रह्मपद से उपजकर उसी जन्म में ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं, कोई अनेक जन्म में और कोई थोड़े जन्म में प्राप्त होते हैं। कितने एक जन्म से और ब्रह्माण्ड को प्राप्त होते हैं, कोई इसी में देवता से पशु जन्म पाते हैं, कोई पशु से देवता हो जाते हैं और कोई नाग हो जाते हैं। निदान जैसी-तैसी वासना होती है तैसा ही रूप हो जाता है। जैसे यह जगत् विस्ताररूप है तैसे ही अनेक जगत् हैं, कोई समानरूप है, कोई विलक्षण आकार है, कोई हुए हैं, कोई होवेंगे, विचित्ररूप सृष्टि उपजती है और मिटती है और कोई गन्धर्व भाव, कोई यक्ष, देवता आदिक भाव को प्राप्त हुए हैं। जैसे जीव इस जगत में व्यवहार करते हैं तैसे ही और जगतों में भी व्यवहार करते हैं पर प्राकार विलक्षण हैं और अपने स्वभाव के वश हुए जन्म-मरण पाते हैं। जैसे समुद्र से तरंग उपजते हैं और मिट जाते है तैसे ही सृष्टि की प्रवृत्ति, उत्पत्ति और लय होती है। जब संवितस्पन्द होते हैं तव उपजते हैं और जब निःस्पन्द होते हैं तब लय होते हैं। जैसे दीपक का प्रकाश लय होता है, सूर्य से किरणे निकलती हैं तप्त लोहे और अग्नि से चिंगारि निकलती हैं, काल में ऋतु निकलती हैं, पुष्प से सुगन्ध प्रकट होती है और समुद्र से तरंग उपजते भौर फिर लय होते हैं तैसे ही आत्मसत्ता से जीव उपजते हैं और लय होते हैं। जितने जीव हैं वे सब समय पाके अपने पद में लय होंगे और स्वरूप में इनका उपजना, स्थित, बन्धन, नष्ट होना मिथ्या है। त्रिलोकीरूप महामाया के मोह से उपजते हैं और समुद्र के तरंग की नाई नाश होते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिपकरणे जीवबीजसंस्थावर्णनन्नाम त्रिचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४३॥

रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जीव इस क्रम से आत्मस्वरूप में स्थित है फिर अस्थि, मांस से पूर्ण देहपिंजर इसको कैसे प्राप्त हुआ है?