पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५१०

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योगवाशिष्ठ।

स्थित है वह मुझसे कम से कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे महाबाहु, रामजी! प्रथम जिस प्रकार ब्रह्मा ने शरीर को पाकर ग्रहण किया है उसको सुनकर स्थिति भी जानोगे। देश काल आदिक के परिच्छेद से रहित आत्मतत्त्व अपने आपमें स्थित है। वह अपनी लीलाशक्ति से देश, काल, क्रिया को कल्पता है और उसी से जीव के इतने नाम हुए हैं। वासना से तबूप हुई वित्तकला चपलरूप मन हुआ और वह दृश्यकलना के सम्मुख हुई। प्रथम उसी चित्तकला ने मानसी शक्ति होकर आकाश की भावना की, और स्वच्छ बीजरूप जो शब्द है उसके सम्मुख हुई। जैसे नूतन बालक प्रकट होता है तैसे ही आकाश पोलरूप फुर आया। फिर स्पर्श बीज के सम्मुख हुई तब पवन फुर आया। जब शब्द, स्पर्श, आकाश और पवन का संघर्षण हुआ तब मन के तन्मय होने से अग्नि उपजा और बड़ा प्रकाश हुआ। फिर रस तन्मात्रा की भावना की, तब शीतल भावना से जल फर पाया जैसे अति उष्णता से स्वेद निकल पाता है। फिर गन्ध तन्मात्रा की भावना की उससे, घ्राण इन्द्रिय निकली, स्थूल की भावना से जल चक्र पृथ्वी होकर स्थित हुआ और भाकाश में बड़ा प्रकाश हुआ। अहंकार की कला से युक्त और बुद्धिरूपी बीज से समुच्चयरूप हुए और अष्टम जीवसत्ता हुई। इन अष्ट का नाम पुर्यष्टक हुआ और वही देहरूपी कमल का भवरा हुआ। आत्मसत्ता में तीव्र भावना करके उस चित्तसत्ता ने बड़ा स्थूल वपु देखा। जैसे बीज से वृक्ष फल होने से रस प्रणमता है तैसे ही निर्मल आकाश में वृत्तिस्पन्द, अस्पन्दरूप हुई है। जैसे भूषण बनाने के निमित्त साँचे में सुवर्ण आदिक धातु डालते हैं तो वह भूषणरूप हो जाती है तैसे ही ब्रह्मा ने अपनी चैतन्य संवेदन मनरूपी संवित् में तीव्र भावना की उससे स्थूलता को प्राप्त हुए। स्वतः यह दृश्य का रूप फुरना क्रम से हुआ कि ऊर्ध्व शीश है, अधः पाद है, चारों दिशा हाथ हैं और मध्य में उदय धर्म है। जैसे नूतन बालक प्रकट होता है और महा उज्ज्वल प्रकाशज्वाला की लाटों के समान उसके अङ्ग होते हैं तैसे ही ब्रह्मा का शरीर उत्पन्न हुआ। इस प्रकार वासनारूप कल्पित मन से शरीर उत्पन्न