पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५११

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स्थिति प्रकरण।

कर लिया है। आदि ब्रह्मा का प्रकाश ही शरीर हुआ है जो सदा ज्ञानरूप, संपूर्ण ऐश्वर्य, शक्ति, तेज और उदारता से सम्पन्न स्थित है। इस प्रकार ब्रह्माजी सब जीवों का अधिपति द्रव स्वर्णवत् कान्ति परम आकाश से उपजकर आकाररूप स्थित हुआ और अपनी लीला के निमित्त अपने निवास का गृह रचा। हे रामजी! कभी ब्रह्माजी परम आकाश में रहते हैं, कभी कल्पान्तर महाभास्कर अग्नि में रहते हैं और कभी विष्णुजी के नाभि कमल में रहते हैं। इसी भाँति अनेक प्रकार के भासन रचकर कभी कहीं कभी कहीं स्थित होते हैं और लीला करते हैं। जब परम तत्त्व से प्रथम वह इस प्रकार फुरते हैं तब अपने साथ शरीर देखते हैं, जैसे बालक निद्रा से जागकर अपने साथ शरीर देखता है—जिसमें बाण के प्रवाह सदृश प्राण अपान जाते आते हैं—तब पञ्चतत्त्व जो द्रव्य हैं उनको रचते हैं। इस शरीर में बत्तीस दाँत, तीन थम्भ, तीन देवता अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, नवदार दो जङ्घस्थल, दो पाँव, दो भुजा, बीस अंगुली, बीस नख एक मुख और दो नेत्र हैं। कभी अपनी इच्छा से अनेक भुजा और अनेक नेत्र कर लेता है और मांस की कहगिल है। ऐसा शरीर चित्तरूपी पक्षी का घर है, कामदेव भोगने का स्थान है, वासनारूपी पिशाचिनी का गृह है, जीवरूपी सिंह की कन्दरा है और अभिमानरूपी हस्ती का वन है। इस प्रकार ब्रह्माजी ने शरीर को देखा और बड़े उत्तम कान्तिमान शरीर को देखकर ब्रह्माजी जो त्रिकालदर्शी हैं चिन्तवन करने लगे कि इसके आदि क्या हुआ है ओर अब हमें क्या करना है, तो उन्होंने क्या देखा कि जो आगे भूत का सर्ग वेदसंयुक्त व्यतीत हुआ है ऐसे अनेक सर्ग हुए हैं। उनके सब धर्म स्मरण करके देखा और वाङ्मय भगवती और वेद का स्मरण किया और सर्वसृष्टि के धर्म, गुण, विकार, उत्पत्ति, स्थिति, बढ़ना, परिणाम, क्षीण और नाश को स्मृतिशक्ति से देखा जैसे योगेश्वर अपना और अन्यों का अनुभव करता है और चित्तशक्ति में स्थित होकर स्मृतिशक्ति से देख लेता है तैसे ही ब्रह्माजी ने दिव्य नेत्रों से अनुभव किया। फिर इच्छा हुई कि विचित्ररूप प्रजा को उत्पन्न करूँ। ऐसे विचारकर