पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५१२

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योगवाशिष्ठ।

प्रजा को उत्पन्न किया और जैसे गन्धर्वनगर तत्काल हो जाता है तैसे ही सृष्टि हो गई। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पदार्थ उनके साधन रचे और फिर उनमें विधि निषेध रचे कि यह कर्तव्य है, यह अकर्तव्य है, उनके अनुसार फल की रचना की और शुभ अशुभ विचित्रता रची। हे रामजी! इस प्रकार से सृष्टि हुई है और फुरने की दृढ़ता से ही स्थित है। उसमें तीन काल, क्रिया, द्रव्य, कर्म, धर्म रचे हैं। जैसे नीति रची है तैसे ही स्थित है। जैसे वसन्त ऋतु में पुष्प उत्पन्न होते हैं तैसे ही ब्रह्मा के मन की सृष्टि रची है। यह विचित्ररूप रचना का विलास चित्ररूप ब्रह्मा के चित्त में कल्पित है, काल से उत्पन्न हुई है भोर काल ही से स्थित है। स्वरूप में न कुछ उपजा है और न कुछ नष्ट होता है जैसे स्वमसृष्टि होती हे तेसे ही यह संसाररचना है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे संसारप्रतिपादनन्नाम चतुश्चत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४४॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जो उपजा है वह कुछ नहीं उपजा और न स्थित है—शून्य आकाशरूप है और मन के फुरने से सृष्टि भासती है। बड़े देश, काल, क्रियासंयुक्त जो ब्रह्माण्ड दृष्टि माता हे उसने परमार्थ में कुछ भी स्थान नहीं रोका, स्वमपुरवत् संकल्पमात्र है और आधार बिना चित्र है। जैसे मूर्ति का चित्र आधार बिना मिथ्या होता है तैसे ही यह जगत् बड़ा भासता है पर मिथ्या है, असत्य तमरूप है और आकाश में चित्त की नाई है। जैसे स्वप्न में भासरूप जगत् भासता है वह असत् रूप है तैसे ही यह शरीरादिक जगत् मन के फुरने से भासता है—मन का फुरना ही इसका कारण है। जैसे नेत्र का कारण प्रकाश है तैसे ही जगत् का कारण चित्त है। सब जगत् आकाशमात्र है और घट, पट, गढ़ा आदिक क्रम सहित भी असवरूप मैं। जैसे जल में जो चक्रावर्त भासते हैं वे असवरूप हैं तैसे ही पर्वतादिक जगत् असत्यरूप हैं, अपने निवास के निमित्त मन ने यह शरीर रचा है। जैसे कुसवारी अपने निवास के निमित्त गृह रचती है और आप ही बन्धन मैं आती है तैसे ही मन शरीरादिक को रचकर आप ही दुःखी होता