पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५१३

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स्थिति प्रकरण।

है। ऐसा पदार्थ कोई नहीं जो संकल्प से रहित सिद्ध हो और मन के यत्न से सिद्ध न हो कठिन क्रूर पदार्थ भी मन से सिद्ध होता है। परमात्मा जो देव है वह सर्वशक्तिमान है, मन भी उसी की शक्ति है, वह कौन पदार्थ है जो मन से सिद्ध न हो, मन से सब कुछ बन जाता है, क्योंकि जो कुछ पदार्थ हैं उनमें सत्ता परमात्मा की है—उससे कुछ भिन्न नहीं। इससे परमात्मा देव में सब कुछ सम्भव है। आदि चित्तकला ब्रह्मारूप होकर उदय हुई है। भावना के अनुसार उसने आपको ब्रह्मा का शरीर देखा और उसने कलनारूप देवता, दैत्य, मनुष्य, स्थावर, जङ्गमरूप जगत् रचा है भोर संकल्प में स्थित है। जब तक उसका संकल्प है तब तक तैसे ही स्थित है। जब संकल्प मिट जावेगा तब सृष्टि भी नष्ट हो जावेगी। जैसे तेल से रहित दीपक निर्वाण हो जाता है तैसे ही जगत् भी हो जावेगा क्योंकि आकाशवत् सब ही कलनामात्र है और दीर्घस्वप्नत् स्थित है। वास्तव में न कोई उपजा है न मरता है परमार्थ से तो ऐसे हैं और भवान से सब पदार्थ विकारसंयुक्त भासते हैं। न कोई वृद्धि है, न कोई नष्ट होता है उसमें और विकार कैसे मानिये? जैसे पत्र की रेखा के उपजने और नाश होने में वन को कुछ अधिकता और न्यूनता नहीं होती तैसे ही शरीर के उपजने और नष्ट होने में आत्मा को लाभ हानि कुछ नहीं। सब जगत् दृश्यभ्रान्ति से भासता है। ज्ञानदृष्टि से देखो अज्ञानीवत् क्यों मोहित होते हो? जैसे मृगतृष्णा का जल प्रत्यक्ष भासता है तो भी मिथ्या भ्रममात्र होता है तैसे ही ब्रह्मा से आदि तृणपर्यन्त सब भ्रान्तिमात्र है। जैसे प्राकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है तैसे ही मिथ्या ज्ञान से जगत् भासता है। जैसे नौका पर बैठे को तट के वृक्ष, स्थान चखते दृष्टि पाते हैं तैसे ही भ्रमदृष्टि से जगत् भासता है। इस जगत् को तुम इन्द्रजालवत् जानो, यह देह पिंजर है और मन के मनन से असत्यरूप हो सत्य की नाई स्थित हुआ है। जगत् द्वैत नहीं है माया से रची ब्रह्मसत्ता ही ज्यों की त्यों स्थित है और शरीरादिक कैसे किसकी नाई स्थित कहिये। पर्वत तृणादिक जो जगत् आडम्बर है वह भ्रान्तिमात्र मन की भावना से दृढ़ हैं