पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५१५

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स्थिति प्रकरण।

तैसे ही जगत् के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता। वह उपजने, बढ़ने, घटने और नाश होने से रहित है। जैसे बालक अपनी क्रीड़ा के निमित्त हाथी घोड़ा नगर रचता है और समेट लेता है तो वह उसके उपजने मिटने में ज्यों का त्यों है और जैसे बाजीगर बाजी को फैलाता हे और फिर लय करता है तो उत्पत्ति लय में बाजीगर ज्यों का त्यों है तैसे ही आत्मा जगत् की उत्पत्ति लय में ज्यों का त्यों है उसका कुछ कदाचित् नष्ट नहीं होता। जो सब सत्य है तो किसी का नाश नहीं होता इस कारण जगत् में हर्ष शोक करना योग्य नहीं और जो सब असत है तो भी नाश किसी का न हुआ और दुःख भी किसी को न हुआ। सत्य असत्य दोनों प्रकार हर्षशोक नहीं होता। स्वरूप से किसी का नाश नहीं और सब जगत् ब्रह्मरूप है तो दुःख सुख कहाँ है? ब्रह्मसत्ता में कुछ द्वैत जगत् बना नहीं, सब जगत् प्रत्यक्षरूप भासता है तो भी असवरूप है। उस असत्ररूप संसार में ज्ञानवान को ग्रहण करने योग्य कोई पदार्थ नहीं और सबजगत् में ब्रह्मतत्त्व है—कुछ भिन्न नहीं तो त्रिलोकी में किस पदार्थ के ग्रहण त्याग की इच्छा कीजिये? जगत् सत्यरूप हो अथवा असत्य ज्ञानवान् को सुख दुख कोई नहीं। ओर भ्रान्तिदृष्टि अज्ञानी को दुःखदायक होती है। जो वस्तु आदि अन्त में असत्य हे उसे मध्य में भी असत्य जानिये और उसके पीछे जो शेष रहता है वह सत्यरूप है जिससे असत्य भी सिद्ध होता है। जिनकी बालबुद्धि मोह से आवृत है वे जगत् के पदार्थों की इच्छा करते हैं—बुद्धिमान नहीं करते। बालक को जगत् विस्ताररूप भासता है, उससे वे अपना प्रयोजन चाहते हैं और सुखदुःख भोगते हैं। तुम बालक मत हो, जगत् अनित्य है इसकी आस्था त्यागकर सत्यात्मा में स्थित हो। जो आप संयुक्त सम्पूर्ण जगत् असवरूप जानो तो भी विषाद नहीं और जो भाप संयुक्त सब सत्य जानो तो भी इस दृष्टि से हर्ष शोक नहीं। ये दोनों निश्चय सुखदायक हैं। आप संयुक्त सब असत्यरूप जानोगे तो दुःख न होगा। वाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार वशिष्ठजी ने कहा तब सूर्य अस्त हुआ और सब सभा नमस्कार करके अपने-अपने स्थान को गई और सूर्य की