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योगवाशिष्ठ।

किरणों के निकलते ही फिर अपने अपने आसन पर आ बैठे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे यथार्थोपदेशयोगो नाम पञ्चचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४५॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो धन, स्त्री आदि नष्ट हो जावें तो इन्द्रजाल की बाजीवत् जानिये। इससे भी शोक का अवसर नहीं होता। जो क्षण में दृष्टि आये और फिर नष्ट हो गये उनका शोक करना व्यर्थ है। जैसे गन्धर्वनगर जो रत्नमणि से भूषित किया हो अथवा दूषित हुआ हो उसमें हर्ष शोक का स्थान कहाँ है; तैसे ही अविद्या से रचे पुत्र, स्त्री, धनादिक के सुख दुःख का क्रम कहाँ है? जो पुत्र, धनादिक बढ़े तो भी हर्ष करना व्यर्य है, क्योंकि मृगतृष्णा का जल बढ़ा भी अर्थ सिद्ध नहीं करता, तैसे ही धन, दारादिक बढ़े तो हर्ष कहाँ है? शोकवान् ही रहता है। वह कौन पुरुष है जो मोहमाया के बढ़े शान्तिमान् हो वह तो दुःखदायक ही है जो मूढ़ हैं वे भोगों को देखके हर्षवान् होते हैं और अधिक से अधिक चाहते हैं और बुद्धिमानों को उन भोगों से वैराग्य उपजता है। जिनको आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ और भोगों को अन्तवन्त नहीं जानते उनको भोग की तृष्णा बढ़ती है और जो बुद्धिमान हैं वे भोगों को आदि से ही अन्तवन्त जानते हैं और दुःखरूप जानकर उनकी इच्छा नहीं करते। इससे हे राघव! बानवान की नाई व्यवहारों में विचरो। जो नष्ट हो, सो हो और जो प्राप्त हो सो हो उसमें हर्षशोक न करना। उसको यथाशाख हर्षशोक से रहित भोगो और जो न प्राप्त हो उसकी इच्छा न करो। यह पण्डितों का लक्षण है। हे रामजी! यह संसार दुःखरूप है इसमे मोह को प्राप्त न होना, जैसे ज्ञानवान विचरते हैं तैसे ही विचरना, मूढ़वत् नहीं विचरना। यह संसार आडम्वर अज्ञान से रचा है, जो इसको ज्यों का त्यों नहीं देखते वे कुबुद्धि नष्ट होते हैं संसार के जिन जिन पदार्थों की इच्छा होती है वे सब बन्धन के कारण हैं और उनमें जीव डूब जाता है। जो बुद्धिमान् हैं वे जगत् के पदार्थों में प्रीति नहीं करते और जिसने निश्चय से जगत् को असत्यरूप जाना है वह किसी पदार्थ में बन्धवान् नहीं होता, अविद्या