पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५१९

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स्थिति प्रकरण।

स्वप्न जगत् की नाई उत्पन्न होते हैं, कितने बीते हैं और कितने आगे होंगे उनमें से तुमने एक ब्रह्मा की उत्पत्ति पूछी है सो सुनो। यह भी अनेक प्रकार के होते हैं, कभी सृष्टि सदाशिव से उत्पन्न होती है, कभी ब्रह्मा से, कमी विष्णु से और कभी मुनीश्वर रच लेते हैं। कभी ब्रह्मा कमल से उपजते हैं, कभी जल से कभी पवन से और कभी अण्डे से उपजे हैं। कभी किसी ब्रह्मांड में ब्रह्मा, कभी विष्णु भौर कभी सदाशिव होते हैं। कभी सृष्टि में पर्वत उपजते हैं और कभी मनुष्यों से और कभी वृक्षों से पूर्ण होती है। सृष्टि की उत्पत्ति भी अनेक प्रकार से होती है, किसी ब्रह्माण्ड में मृत्यु का भय होता है, कभी पाषाणमय होती है कभी मांसमय होती है और कभी सुवर्णमय होती है। कई सृष्टियों में चतुर्दश लोक हैं, किसी सृष्टि में कई लोक हुए हैं और किसी सृष्टि में ब्रह्मा नहीं हुए। इसी प्रकार अनेक सृष्टि चिदाकाश ब्रह्मतत्त्व से फुरी हैं और फिर लय हुई हैं। जैसे समुद्र में तरंग उपजकर लय होते हैं तैसे ही आत्मा में अनेक सृष्टि उपजकर लय हो जाती हैं। जैसे मरुस्थल में मृगतृष्णा की नदी भासती है और पुष्प में सुगन्ध होती है तैसे ही परमात्मा में जगत् है। जैसे सूर्य की किरणों में त्रसरेणु भासते हैं और उनकी संख्या नहीं कही जाती यदि कोई ऐसा समर्थ भी हो कि उनकी संख्या करे, परन्तु ब्रह्मतत्त्व में जो सृष्टि फुरती हैं उनकी संख्या वह भी न कर सकेगा। जैसे वर्षाऋतु में ईखों के खेत में मच्छर होते हैं और नष्ट हो जाते हैं तैसे ही आत्मा में सृष्टि उपजकर नष्ट हो जाती है। वह काल नहीं जाना जाता जिस काल में सृष्टि का उपजना हुआ है। आत्मतत्त्व में नित्य ही सृष्टि का उपजना और लय होना है। जैसे समुद्र में पूर्वापर तरंग फुरते हैं उनका अन्त नहीं, इसी प्रकार सृष्टि का आदि और मन्त कुछ नहीं जाना जाता। देवता, दैत्य, मनुष्य आदिक कितने उपजकर लय हुए हैं और कितने भाग होंगे। जैसे यह ब्रह्माण्ड ब्रह्मा से रचा गया है तैसे ही अनेक ब्रह्माण्ड हो गये हैं और जैसे अनेक घटिका एक वर्ष में व्यतीत होती हैं तैसे बीते हैं। जैसे समुद्र में तरङ्ग होते हैं तैसे ही ब्रह्मतत्त्व में असंख्य जगत् होते हैं। कितनी सृष्टि हो