पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२

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योगवाशिष्ठ।

अङ्गीकार नहीं करता। जैसे दुःख का अनुभव बालक को होता है वह हमारे स्वप्ने में भी नहीं आया। यह बाल्यावस्था अवगुण का भूषण है और अवगुण से शोभित है। ऐसी नीच अवस्था को मैं अङ्गीकार नहीं करता। इसमें गुण कोई भी नहीं है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठेवैराग्यप्रकरणेबाल्यावस्थावर्णनन्नाम चतुर्दशस्सर्गः१४

श्रीरामजी बोले, हे मुनीश्वर! दुःखरूप बाल्यावस्था के अनन्तर युवावस्था आती है सो नीचे से ऊँचे चढ़ती है। वह भी उत्तम नहीं अधिक दुःखदायक है। जब युवावस्था आती है तब कामरूपी पिशाच आ लगता है। वह कामरूपी पिशाच युवावस्थारूपी गढ़े में आ स्थित होता है, चित्त को फिराता है और इच्छा पसारता है। जैसे सूर्य के उदय होने से सूर्यमुखी कमल खिल आता है और पंखुरियों को पसारता है वैसे ही युवावस्थारूपी सूर्य उदय होकर चित्तरूपी कमल और इच्छारूपी पंखुरी को पसारता है। फिर जैसे किसी को अग्नि के कुंड में डाल दिया हो और वह दुःख पावे वैसे ही काम के वश हुआ दुःख पाता है। हे मुनीश्वर! जो कुछ विकार हैं सो सब युवावस्था में प्राप्त होते हैं। जैसे धनवान को देखके सब निर्धन धन की आशा करते हैं वैसे ही युवावस्था देखकर सब दोष इकट्ठे होते हैं जो भोग को सुखरूप जानकर भोग की इच्छा करता है वह परम दुःख का कारण है। जैसे मद्य का घट भरा हुआ देखने मात्र सुन्दर लगता है परन्तु जब उसको पान करे तब उन्मत्त होकर दीन हो जाता है और निरादर पाता है वैसे ही भोग देखने मात्र सुन्दर भासते हैं, परन्तु जब इनको भोगता है तब तृष्णा से उन्मत्त भोर पराधीन हो जाता है। हे मुनीश्वर! यह काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहङ्कार आदि सब चोर युवारूपी रात्रि को देखकर लूटने लगते हैं और आत्मावानरूपी धन को ले जाते हैं। इससे जीव दीन होता है। आत्मानन्द के वियोग से ही जीव दीन हुआ है। हे मुनीश्वर! ऐसी दुःख देनेवाली युवावस्था को मैं अङ्गीकार नहीं करता। शान्ति चित्त को स्थिर करने के लिये है पर युवावस्था में चित्त विषय की ओर धावता है जैसे वाण लक्ष्य की ओर जाता है। तब उसको विषय का संयोग