पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२३

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स्थिति प्रकरण।

आते हैं। स्वर्ग, इन्द्र, अप्सरागण अमृतमय होते हैं और धर्म, अर्थ, काम मोक्ष, क्रिया, कर्म, शुभ, अशुभरूप आते हैं और यज्ञ, दान, होम आदिक सर्वक्रियासंयुक्त संसारी जीव होते हैं। शुभ कर्म करनेवाले स्वर्ग में विचरते हैं और सुख भोगते हैं पर पुण्य के क्षीण हुए गिरा दिये जाते हैं और मृत्युलोक में आते हैं। इस प्रकार कर्म करते, उपजते और नष्ट होते हैं। स्वर्गरूपी कमल में इन्द्ररूपी भँवरा है जो स्वर्गकमल की सुगन्ध को लेने आता है। जितना पुण्य कर्मक्रिया होती है उतने काल सुख भोगकर नष्ट हो जाते हैं और सत्ययुग आदिक युग और सब देश, काल, क्रिया, द्रव्य, जीव उपज आते हैं। जैसे कुलाल चक्र से वासन बनाता है तैसे ही चित्तकला फुरने से जगत् के अनेक पदार्थों को उत्पन्न करती है। जीवसंयुक्त सुन्दर स्थान होते हैं और फिर नष्ट हो जाते हैं। असत्यमात्र जगत्जाल जीव से रहित शून्य मसान हो जाता है और कुलाचल पर्वत के आकारवत् मेघ जल की वर्षा करते हैं उसमें जीव बुबुदेरूप होकर स्थित होते हैं। द्वादश सूर्य उदय होते हैं शेषनाग के मुख से अग्नि निकलती है उससे सब जगत् दग्ध हो जाता है और फिर अग्नि की ज्वाला शान्त हो जाती है, एक शून्य आकाश ही शेष रहता है। और रात्रि हो जाती है। जब रात्रि का भोग हो चुकता है तब फिर जीव जीर्ण देह से संयुक्त मनरूप ब्रह्मा रच लेता है। इस प्रकार शून्य आकाश में मन जगत को रचता है। जैसे शन्य स्थान में गन्धवे माया से नगर रच लेता है तैसे ही जगत् को मन रच लेता है और फिर प्रलय हो जाता है। इस प्रकार जगतगण उपजकर महाप्रलय में नष्ट होते हैं और ब्रह्मा के दिन भय हुए फिर जब ब्रह्मा का दिन होता है तब फिर रच लेता है, फिर महाप्रलय में ब्रह्मादिक सब अन्तर्धान हो जाते हैं। इसी प्रकार प्रलय महाप्रलय होके अनेक जगत्गण व्यतीत होते हैं और महादीर्घ मायारूपी कालचक्र फिरता है उसमें मैं तुमको सत्य और असत्य क्या कहूँ? सब भ्रान्तरूप दासुर के आख्यानवत् हैं और कल्पनामात्र रचित चक्र वास्तव में शून्य आकाशरूप है और बड़े आरम्भसंयुक्त विस्ताररूप भासता है, पर असत्यरूप है। जैसे भ्रम से दूसरा चन्द्रमा भासता हे तैसे