पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२५

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स्थिति प्रकरण।

और फल फूलों से पूर्ण है जिन पर कोकिला आदिक पक्षी शब्द करते हैं। उस नगर में एक धर्मात्मा तपसी दासुर नाम हुआ जो वन में जाकर कदम्ब वृक्ष पर बैठकर तप करता था। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह ऋषीश्वर तपसी वन में किस निमित्त आया था और कदम्ब वृक्ष पर किस निमित्त बैठा वह कारण कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! सरलोमा नाम ऋषीश्वर उसका पिता मानों दूसरा ब्रह्मा उस पर्वत पर रहता था। उसके गृह में दासुर नाम पुत्र हुआ—जैसे बृहस्पति के गृह में कच हो। निदान दासुर संयुक्त उसने वन में चिरकालव्यतीत किया और आयु के क्षीण हुए देह का त्यागकर स्वर्गलोक में गया जैसे पक्षी आलय को त्यागकर आकाश में उड़ता है तब उस वन में दासुर अकेला रह गया और पिता के वियोग से ऐसे रुदन करने लगा जैसे हथिनी वियोग से कुरलाती है और जैसे हिमऋतु में कमल की शोभा नष्ट हो जाती है तैसे ही दीन हो गया। वहाँ अदृष्ट शरीर वनदेवी थी। उसने दया करके आकाशवाणी की कि हे ऋषिपुत्र! अज्ञानी की नाई क्या रुदन करता है? यह सर्व संसार असवरूप है। तू इस संसार को देखता नहीं कि यह नाशरूप और महाचञ्चल है, सब काल उत्पन्न और विनाश होता है और कोई पदार्थ स्थित नहीं रहता। ब्रह्मा से आदि कीट पर्यन्त जो कुछ जगत् तुझको भासता है वह सब नाशरूप है—इसमें कुछ संदेह नहीं। इससे तू पिता के मरने का विलाप मत कर। यह बात अवश्य इसी प्रकार है कि जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट होगा, स्थिर कोई न रहेगा—जैसे सूर्य उदय होकर मस्त होता है। हे रामजी! जब इसी प्रकार उस देवी की वाणी दासुर ने सुनी तो धैर्यवान हुआ और जैसे मेघ का शब्द सुनकर मोर प्रसन्न होता है तैसे शान्तिमान होकर यथाशास्त्र पिता की सब क्रिया की। इसके अनन्तर सिद्धता के निमित्त तत्पद का उद्यम किया परन्तु अज्ञात हृदय था। ऐसा श्रोत्रिय होकर तप के निमित्त उठ विचार किया कि कोई पवित्र स्थान हो वहाँ जाकर तप करूं। निदान देखता देखता पृथ्वी के किसी स्थान में चित्त विश्रान्तवान् न हुमा। सब पृथ्वी उसको अशुद्ध ही दीखी, कहीं