पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२६

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योगवाशिष्ठ।

कोई विघ्न भासे और कहीं कोई विघ्न दृष्टिगोचर हो। निदान उसने विचार किया कि और स्थान तो सब अशुद्ध हैं परन्तु वृक्ष की शाखा पर बैठकर तप करूँ। ऐसा कोई उपाय हो जो वृक्ष की शाखा के अनभाग में मैं स्थिति पाऊँ। ऐसी चिन्तना करके उसने अग्नि जलाई और अपने मुख का मांस काट काटकर होमने लगा। तब देवता का मुख जो अग्नि है उसने विचारा कि ब्राह्मण का मांस मेरे मुख में न आवे और बड़े प्रकाश से देह धरकर ब्राह्मण के निकट आया और कहा, हे ब्राह्मणकुमार! जो कुछ तुझको वाञ्छित वर है वह माँग। जैसे कोई भण्डार को खोलकर मणि लेता है तैसे ही तू मुझसे वर ले। तब दासुर ने पुष्प, धूप, सुगन्ध आदिक से अग्नि का पूजन किया और प्रसन्न होकर कहा हे भगवन्! प्राणाहुति के पवन शरीर से मैंने तप करने के निमित्त उद्यम किया है सो और कोई शुद्ध स्थान मुझको नहीं भासता इसलिए मैं चाहता हूँ कि इस वृक्ष की अन शिखा में स्थिति होने को मुझको शक्ति हो और यहाँ बैठकर मैं तप करूँ। यही वर मुझको दो। तब अग्निदेव ने कहा ऐसे ही हो। इस प्रकार कहकर अग्नि अन्तर्धान हो गया जैसे संध्याकाल के मेघ अन्तर्धान हो जाते हैं। तब वर पाके ब्राह्मणकुमार ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा पूर्ण कलाओं से प्रसन्न होता है और चन्द्रमा के प्रकाश को पाकर कमलिनी शोभित होती है तैसे ही वर पाके वह शोभित हुआ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दासुरोपाख्याने वनोपरुदनं नामाष्टचत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४८॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार वर को पाकर दासुर कदम्ब वृक्ष की टास पा, जो अद्भुत और बड़ा सुन्दर था और जिसका पत्र आकाश में लगता था, जा बैठा तो उसने दिशा का चञ्चलरूप कौतुक देखा कि दृश्यरूप मानों चञ्चल पुतली है, श्याम प्रकाश उसका शीश है, श्यामकेश ही प्रकाशरूप है, पाताल उसके चरण है मेघरूपी वस्त्र है और पुण्यवत् गौर अङ्ग है। ऐसी दृश्यरूपी एक स्त्री है, समुद्र, कैलास जिसके भूषण हैं, प्राणरूपी फुरने से चलती है, मोहरूपी शरीर है,