पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२८

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योगवाशिष्ठ।

इन्द्र के नन्दनवन में उत्साह हुआ था। सब वनदेवियाँ एकत्र होकर त्रिलोकी से आई और सब पुत्रों संयुक्त पुष्पों से बड़े विवास क्रीड़ा करती थीं पर मैं अपुत्र थी इस कारण मैं दुःखित हुई और उस दुःख के दूर करने के लिये तुम्हारे पास आई हूँ। तुम अर्थ के सिद्ध कर्ता हो और बड़े वृक्ष पर स्थित हो। मै अनाथ पुत्र की वाञ्छा कर तुम्हारे निकट भाई हूँ, इससे मुझको पुत्र दो और जो न दोगे तो मैं अग्नि जलाकर जल मरूँगी और इस प्रकार पुत्र का दुःखदाह निवृत्त करूँगी। हे रामजी! जब इस प्रकार वनदेवी ने कहा तब मुनीश्वर हँसे और दया करके हाथ में पुष्ष दिया और कहा, हे सुन्दरि, जा तेरे एक मास के उपरांत पूजने योग्य और महासुन्दर पुत्र होगा परन्तु तूने जो इच्छा धारी थी कि जो पुत्र प्राप्त न होगा तो जल मरूँगी, इससे अज्ञानी पुत्र होगा पर यत्न से उसको ज्ञान प्राप्त होगा। जब इस प्रकार मुनीश्वर ने कहा तब प्रसन्न होकर वनदेवी ने कहा, हे मुनीश्वर! मैं यहाँ रहकर तुम्हारी टहल करूँगी। परन्तु मुनीश्वर ने उसका त्याग किया और कहा, हे सुन्दरि! तू अपने स्थान में जा रह। तब वह वनदेवियों में जा रही और समय पाके उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह दश वर्ष का बालक हुख तब वह उसे मुनीश्वर के निकट ले आई और पुत्रसंयुक्त प्रणाम करके पुत्र को मुनीश्वर के आगे रखकर कहा, हे भगवन्! यह कल्याणमूर्ति बालक तुम हम दोनों का पुत्र है। इसको मैंने सम्पूर्ण विद्या सिखाकर परिपक किया हैक्षऔर अब वह सर्वका वेत्ता हुआ है, परन्तु केवल ज्ञान इसे प्राप्त नहीं हुआ जिससे इस संसार यन्त्र में फिर दुःख पावेगा। इसलिये आप कृपा करके इसको ज्ञान उपदेश करो। हे प्रभो! ऐसा कोन कुलीन है जो अपने पुत्र को मूर्ख रखना चाहे। हे रामजी! जब इस प्रकार देवी ने कहा तब मुनीश्वर बोले तुम उसको यहाँ छोड़ जावो। तब वह देवी उसको छोड़ कर चली गई बालक पिता के पास रहा और बड़े यत्नसे उसको ज्ञान की प्राप्ति हुई। मुनीश्वर ने नाना प्रकार के उक्त आख्यान इतिहास और अपने दृष्टान्त कल्पकर चिरपयन्त पुत्र को जगाया और वेदान्त का निश्चय अनुद्वैग होकर उपदेश किया। विस्तारपूर्वक कथा के क्रम जो अनुभव और बड़े गूढ अर्थ