पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३०

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योगवाशिष्ठ।

उसने बगीचे संयुक्त एक स्थान अपनी क्रीड़ा के निमित्त रचा है और पर्वत के शिखर में मोती की बेलें रची हैं। उसमें सात बावलियों से वह स्थान शोभता है और दो दीपक उसमें रचे हैं जो तेल और बाती बिना प्रकाशते हैं और शीत और उष्णरूप हैं, कभी अधः को और कभी ऊर्ध्व को नगर में भ्रमते हैं। उसने मूर्ख मनुष्य भी रचे हैं, कोई ऊर्ध्व में स्थित है कोई मध्य में और कोई अधः में स्थित है। कोई दीर्घकाल में नष्ट होते हैं कोई शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, कोई वस्त्रों से आच्छादित हैं और कोई वस्त्र रहित हैं। उस नगर में उसने नवदार स्थान किये हैं और उसमें निरन्तर बहुत वृक्ष रोपे हैं। उसने पञ्चदीप देखने निमित्त किये हैं और तीन स्तम्भ रचना किये हैं, जिनमें और छोटे स्तम्भ भी हैं। मूल में के स्तम्भों पर लेपन किया है और पादतल संयुक्त किये हैं। निदान महामाया से उस राजा ने वह नगर रचा है और नगर की रक्षा निमित्त सेना रची है। एक नीति देखनेवाले यक्ष हैं, विवरकगण से वे चलते नाना प्रकार की क्रीड़ा करते हैं। उन शरीरों से वह सब ठोरों में विचरता है, यक्ष सब ठोरों में समीप रहता है और लीला करके एक स्थान को त्यागकर और स्थान में जाकर चेष्टा करता है। कभी इच्छा होती है तब चञ्चल चित्त से भविष्यत् पुर को रचकर उसमें स्थित होता है और कभी भय से वेष्टित हुआ वहाँ से उठ आता है और वेग करके गन्धर्वनगर रचता फिरता है। जब इच्छा करता है कि मैं उपजूँ तब उपज आता है और जब इच्छा करता है कि मैं मर जाऊँ तब मर जाता है। जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते हैं और फिर लय हो जाते हैं उसी प्रकार वह राजा बड़े व्यवहार करता है और बारम्बार रचना करके कभी आप ही रुदन करने लगता है कि मैं क्या करूँ, मैं अज्ञानी दुःखी हूँ, और चित्त से आतुर होता है और कभी विचार करके उदय होकर बढ़ास्थूल हो जाता है—जैसे वर्षाकाल की नदी बढ़ती है तेसे ही बढ़कर आपको सुखी मानता है और विस्तार पाकर चलता फिरता है और बड़े प्रकाश से प्रकाशता है। उस महीपति की बड़ी महिमा है और उचितरूप होकर नगर में स्थित है।

इति श्रीयो॰ स्थितप्र॰ स्वेतयवैभववर्णनन्नामैकपञ्चाशतत्तमस्सर्गः॥५१॥