पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३१

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स्थिति प्रकरण।


हे रामजी! जब इस प्रकार दासुर ने कहा तब पुत्र ने प्रश्न किया कि हे भगवन्! वह स्वेतथ राजा कौन है कि जगत् में जिसकी कीर्ति प्रसिद्ध है और उसने कौन नगर रचा है जो भविष्यत्नगर में रहता है? रहना तो वर्तमान में होता है भविष्य में कैसे रहता है? यह विरुद्ध अर्थ कैसे है? इन वचनों से मेरी बुद्धि मोहित हुई है। दासुर बोले, हे पुत्र! मैं तुझसे यथार्थ कहता हूँ तू सुन, जिसके जाने से संसारचक्र को ज्यों का त्यों देखेगा कि यह वास्तव में क्या है? यह संसार आरम्भ सत्य विस्तारसंयुक्त भासता है, तो भी असत्यरूप है कुछ हुआ नहीं। जैसे यह संसार स्थित है तैसे मैं तुझसे कहता हूँ। यह आख्यान मैंने तुझसे जगत् निरूपण के निमित्त कहा है। हे पुत्र! जो शुद्ध अचैत्य चिन्मात्र चिदाकाश है उससे जो संकल्प उठा है उस संकल्प का नाम स्वेतथ है। वह भाप ही उपजता है और आप ही लीन हो जाता है। सब जगत् उसका रूप जो बड़े विस्तार संयुक्त भासता है और उसके उपजने से जगत् उपजता भौर नष्ट होने से नष्ट होता है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्रादिक सब उसके अवयव हैं। जैसे वृक्ष के अङ्ग टास होते हैं और पर्वत के अङ्ग शिखर होते हैं तैसे ही उसके अङ्ग शून्य आकाश में हैं उससे यह जगवरूपी नगर रचा है। प्रतिभास के अनुसन्धान से वही चित्तकला विरञ्चिपद को प्राप्त हुआ है। चतुर्दश स्थान जो कहे हैं वे विस्तार संयुक्त चतुर्दश लोक हैं और वन, बगीचे, उपवन संयुक्त पर्वत, महाचल, मन्दराचल, सुमेरु आदिक क्रीड़ा के स्थान हैं। उष्ण शीत जो दो दीपक तेल बाती बिना कहे हैं वे सूर्य और चन्द्रमा हैं जो जगवरूपी नगर में अधाःऊर्ध्व को प्रकाशते हैं। सूर्य की किरणों का जो प्रकाश है वही मानों मोती के तरङ्ग फरते हैं और क्षीर जल आदि जो सात समुद्र हैं वे बावलियाँ हैं। उसमें जीव व्यवहार करते, लेते, देते, अधःऊर्ध्व को जाते हैं—पुण्य से स्वर्गलोक में जाते हैं और पाप से नरक में चले जाते हैं। जगत् में संकल्प से जो क्रीड़ा के निमित्त उसने विवरगण रचे हैं वे देह हैं, कोई देवता होकर ऊर्ध्व स्वर्ग में रहते हैं, कोई मनुष्य होकर मध्यलोक में रहते हैं और कोई दैत्य होकर नागलोक आदिक पाताल