पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३२

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योगवाशिष्ठ।

में रहते हैं। पवनरूपी प्रवाह से समस्त यन्त्र चलते फिरते हैं, अस्थिरूपी उनमें लकड़ियाँ हैं और रक्त-मांस से लेपन किये हैं कोई दीर्घकाल में और कोई शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। शीश पर केश श्यामवस्त्र हैं और कर्ण, नासिका, नेत्र, जिह्वा और मूत्र पुरीष के स्थान, खिङ्ग इन्द्रिय और गुदा ये नवदार हैं जिनसे निरन्तर पवन चलता है। शीत उष्णरूप पान अपान हैं, नासिका आदिक उसके झरोखे हैं, भुजारूप गलियाँ हैं, और पञ्चदीपक पञ्चइन्द्रियाँ हैं। हे महाबुद्धिमान! ये सर्व संकल्परूपी माया से रचे हैं, अहंकाररूपी यक्ष है, महाभय का स्थान यह अहंकार से होता है और देहरूपी विवरगण अहंकाररूपी यक्षसंयुक्त विचरते हैं। वे असत्यरूप हैं परन्तु सत्य होकर इसके साथ क्रीड़ा करते हैं। जैसे भाण्ड में बिलाव, बांची में सर्प और बाँस में मोती हैं तैसे ही देह में अहंकार है जो क्षण में उदय होता है और क्षण में शान्त हो जाता है। दीपकवत् भेदरूपी गृह में संकल्प उठता है, जैसे समुद्र में तरङ्ग उठते हैं और भविष्यत् नगर भासता है। सुन, अपना जो कोई स्वार्थ चितवता है कि यह कार्य इस प्रकार करूँगा और फलाने दिन इस देश में जाऊँगा तो जैसे चितवता है तैसे ही भासि आता है और उसमें जा प्राप्त होता है। जब तक दुर्वासना हे तब तक अनेक दुःख होते हैं और यह दुष्ट मन अहंकार से स्थूल हो जाता है और संकल्प से रहित हुए शीघ्र ही इसका नाश होता है। जब तू संकल्प नाश केरगा तब शीघ्र ही कल्याण पावेगा। अपना संकल्प उठकर आप ही को दुःखदायक होता है-जैसे बालक को अपनी परवाही में वैताबकल्पना होती है और आप ही भय पाता है तैसे ही अपना संकल्प अनन्त दुःखदायक होता है, उससे मुख कोई नहीं पाता। सम्पूर्ण जगत् विस्तार संकल्प से होता है और आत्मा की सत्ता से बढ़ता और फिर नष्ट हो जाता है—विचार किये से नहीं रहता। जैसे सायंकाल में धूप का प्रभाव हो जाता है और प्रकाश उदय हुए तम का प्रभाव हो जाता है तसे ही विचार से संकल्प आप ही नष्ट हो जाते हैं। मन भाप ही क्रिया करता है भोर आपही दुःख पाता है और रुदन करने लगता है—जैसे वानर काष्ठ के यन्त्र