पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३३

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स्थिति प्रकरण।

की कील को हिलाकर फंसता है और दुःख पाता है, तैसे ही अपना ही संकल्प आपको दुःखदायक होता है। संकल्प से कल्पित विषय का आनन्द जब जीव को प्राप्त होता है तब वह ऊँची प्रीवा करके हर्षवान होता है—जैसे किसी वृक्ष के फल ऊँट के मुख में आ लगें और वह ऊँची ग्रीवा करके विचरे तैसे ही अज्ञानी जीव विषय की प्राप्ति में ऊँची ग्रीवा करके हर्षवान होते हैं। क्षण में जीव को विषय की प्राप्ति उपजती हे और विशेष करके इष्ट की-प्राप्ति में बढ़ते हैं, पर जब कोई दुःख होता है तब वह प्रीति की प्रसन्नता उठ जाती है और क्षण में विकारी होता है और क्षण में प्रसन्न होकर वस्तुगुण की प्रीति में हर्षवान होता है। शुभ संकल्प से शुभ को देखता और अशुभ संकल्प से अशुभ को देखता है। शुभ से निर्मल होता है और अशुभ से मलीन होता है, आगे जैसी तेरी इच्छा हो तैसा कर। स्वेतथ के जो मैंने तुझसे तीन शरीर कहे थे—उत्तम, मध्यम और अधम, वे सात्त्विक, राजस, तामस यही तीन गुण तीन देह हैं। ये ही सबके कारण जगत में स्थित हैं जब तामसी संकल्प से मिलता है तब नीचरूप पाप चेष्टा कर्म करके महारूपणता को प्राप्त होता है और मृतक होकर कृमि और कीट योनि में जन्म पाता है। जब राजसी संकल्प से मिलता है तब लोक व्यवहार अर्थात् स्त्री, पुत्रादिक के राग से रचित होता है और पापकर्म नहीं करता तो मृतक होकर संसार में मनुष्य शरीर पाता है। जब सात्त्विकी भाव में स्थित होता है तब ब्रह्मज्ञानपरायण होता है, मोक्षपद की उसको अन्तर्भावना होती है और ब्रह्मज्ञान पाकर चक्रवर्ती राजाकीनाईस्थित होता है। जब उन भावों को त्याग करता है तब संकल्प भाव नष्ट हो जाता है और अक्षय परम पद शेष रहता है। इससे संसार दृष्टि को त्याग करके और मन से मन को वश करके भीतर बाहर जो दृश्य का अर्थ चित्त में स्थित है उस संस्कार को निवृत्त करके शान्तात्मा हो। हे पुत्र! इस बिना और उपाय नहीं। जो तू सहस्रवर्ष दारुण तप करे, अथवा लीलावत् आपको शिलासम चूर्ण करे, समुद्र में प्रवेश करे बड़वाग्नि में प्रवेश करे, गढ़े में गिरे, खगधारा के सम्मुख युद्ध करे अथवा सदाशिव, ब्रह्मा, विष्णु वा बृहस्पति दया करके तुझे उपदेश करें