पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३५

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स्थिति प्रकरण।

जैसे बीज अंकुरभाव को प्राप्त होता है तैसे ही सत् संवित् संकल्पभाव को प्राप्त होता है। संकल्प से ही संकल्प उपजता है और आप ही बढ़ता है जिससे सुखी दुःखी होता है। तब अचलरूप में चित्त संवेदन दृश्य की ओर फुरता है तब उस फुरने का नाम संकल्प होता है और स्वरूप से भूलकर जब दृश्य की भोर फुरता है तब संकल्प वृद्ध होता है और जगत्जाल रचता है। जो कुछ प्रपञ्च है वह संकल्प का रचा संकल्पमात्र है जैसे समुद्र जलमात्र होता है, जल से भिन्न नहीं, तैसे ही जगत् भी संकल्प से भिन्न नहीं। आकाशमात्र से भ्रान्तिरूप जगत् फुर आया है—जैसे मृगतृष्णा का जल और आकाश में द्वितीय चन्द्रमा भासता है तैसे ही तुम्हारा उपजना और बढ़ना भ्रममात्र है। जैसे तम का चमत्कार होता है तैसे ही यह जगत् मिथ्या संकल्प से उदय हुआ तुझको भासता है। हे पुत्र! तेरा उपजना भी असत्य है और बढ़ना भी असत्य है, जब तू इस प्रकार जानेगा तब इसकी आस्था लीन हो जावेगी। यह पुरुष है वह है, 'मैं हूँ ये सब भाव दुःख सुख सहित पदार्थ अज्ञान से व्यर्थ भासते हैं। और इनमें आस्था करके हृदय से तपता रहता है। 'अहं' 'त्वं', आदिक दृश्य सब असत्यरूप हैं—जब यह भावना करेगा तब तू पृथ्वी में कल्याणरूप होकर विचरेगा और फिर संसार को प्राप्त न होगा। 'अहं' 'त्वं' से आदि लेकर जब सब दृश्य की भावना हृदय से जावेगी तब इसका प्रभाव हो जावेगा। हे पुत्र! फल को तोड़कर मर्दन करने में भी कुछ यत्न होता है परन्तु आप से सिद्ध और भावमात्र संकल्प के त्याग करने में कुछ यत्व नहीं, फल के ग्रहण करने में भी यव है, क्योंकि हाथ का स्पन्द होता है पर इसमें जो कुछ भावरूप है वह है नहीं तो उसके त्यागने में क्या यत्त है? इससे कुछ है नहीं, इस दृश्य प्रपञ्च से विपर्ययभाव करना कि 'न मैं हूँ' 'न जगत् है, जिस पुरुष ने इस दृश्य जगत् का सद्भाव, संकल्प नाश किया है वह शान्तिरूप होता है। यह संकल्प तो एक निमेष में लीला से जीत लेता है। भावरूप जो आत्मसत्ता है उसमें जब अपना आप उपशम करे तब स्वस्थ होता है। जो शुद्ध मन से मन को देगा वह आत्मतत्त्व में स्थित होगा, इसमें क्या यत्न है। संकल्प के उपशम हुए