पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५३०
योगवाशिष्ठ।

जगत् उपशम होता है और संसार के सब दुःख मूल से नाश हो जाते हैं। संकल्प, मन, बुद्धि, जीव, अहंकार आदिक जो सब नाम हैं ये भेद कहनेमात्र हैं, इनके अर्थ में कुछ भेद नहीं। जो कुछ दृश्य प्रपञ्चजाल है वह सब संकल्पमात्र है, संकल्प के अभाव हुए कुछ नहीं रहता। इससे संकल्प को हृदय से काटो-आकाश की नाई जगत् शून्य है, जैसे आकाश में नीलता भ्रान्ति से भासती है तैसे ही यह जगत् असत्य विकल्प से उठा है। संकल्प और जगत् दोनों असत्य हैं इससे सब असत्यरूप है। असत्यरूप संकल्प ने यह सब सिद्ध किया है इसकी भावना में आस्था करनी मिथ्या है। जब ऐसे जाना तब इष्टरूप किसको जाने, वासना किसकी करे और अनिष्ट किसको जाने, तब सब वासना नष्ट हो जाती है और वासना के नष्ट हुए सिद्धि प्राप्त होती है। हे पुत्र! जो यह जगत् सत्य होता तो विचार किये से भी दृष्टि माता सो तो विचार किये से इसका शेष कुछ नहीं रहता। जैसे प्रकाश के देखे से तम दृष्टि नहीं पाता तैसे ही विचार कर देखे से जगत् सत्य नहीं भासता। इससे यह अविचार से सिद्ध है, असत्यरूप है। और बुद्धि की चपलता से भासता है जिस पुरुष को जगत्भावना उठ गई है उसको जगत् के सुख दुःख स्पर्श नहीं करते। निर्णय से जो असत्यरूप जाना उसमें फिर आस्था नहीं उदय होती भऔर जब अास्था गई तब भाव प्रभाव बुद्धि भी नहीं रहती। संसार के सुख सब मिथ्या मन के फुरने से रचे हैं और मनोराज के नगखत् स्थित हुए हैं। भूत, भविष्य, वर्तमान जगत् मन की वासना से फुरता है और मानसी शक्ति में स्थित है। वह मन क्षण में बड़ा दीर्घ आकार करता है और क्षण में ऐसा सूक्ष्म आकार धरता है कि ग्रहण करिये तो ग्रहण नहीं किया जाता। जैसे समुद्र की लहर को ग्रहण करिये तो पकड़ी नहीं जाती तैसे ही मन है। यद्यपि बड़े आकार संयुक्त जगत् भासता है तो भी कुछ वस्तु नहीं है, क्षणभंगुर है और प्रसार वासना से भासता है और वासना के क्षय हुए शान्त हो जाता है। जब तुझको वासना फरे, तब उसी काल में उसको शीघ्र ही त्यागकर ऐसी भावना कर कि यह दृश्यप्रपञ्च कुछ है नहीं,