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योगवाशिष्ठ।


वशिष्ठजी बोले, हे रघुकुलरूपी आकाश के चन्द्रमा रामजी! जब इस प्रकार दासुर ने पुत्र को उपदेश किया तब मैं उसके पीछे आकाश में स्थित था सो कदम्बवृक्ष के अप्रभाग में जा स्थित हुआ—जैसे मेघ वर्षा, से रहित तूष्णीम होकर पर्वत के शिखर पर जा स्थित होता है तेसे ही मैं भी जा स्थित हुआ। दासुर शूरमा ने जो ज्ञानरूपी शत्रु का नाशकर्ता और परम शक्ति से प्रकाशमान था, तप से उसकी देह ऐसी हो गई थी मानो सुवर्ण का चमत्कार है, मुझको अपने आगे देखा कि वशिष्ठ मुनि आये हैं। ऐसे जानकर उसने उठके अर्घ्य पाद्य से पूजन किया और फिर हम दोनों वृक्ष के पत्र पर बैठ गये। उसने फिर पूजन किया और जब पूजन कर चुका तब हम दोनों कथा का प्रसंग चलाने लगे। और उस चर्चा से उसके पुत्र को संसारसमुद्र के पार करने के निमित्त जगाया। फिर मैंने वृक्ष की ओर देखा जो महासुन्दर फूलों और फलों से शोभायमान था और दासुर की इच्छा द्वारा मृग भोर पक्षी उसके आश्रय रहते थे। उसके पुत्र को हमने विज्ञान दृष्टि से रमणीय दृष्टान्त भोर युक्ति सहित उपदेश किया और नाना प्रकार के विचित्र इतिहासों से उस बालक को जगाया। रात्रि को हम सिद्धांत कथा में लगे रहे और हमको एक मुहूर्त्तवत् रात्रि व्यतीत हुई, जब प्रातःकाल हुआ तब मैं उठ खड़ा हुआ और दासुर अपने पुत्र संयुक्त मेरे साथ चला। जहाँ तक कदम्ब का आकाशतल था वहाँ तक वे मेरे संग आये, पर मैंने बहुत करके उनको ठहराया और मैं गङ्गाजी की ओर चला और स्नान करके सप्तर्षि के मण्डल में जाय स्थित हुआ। हे रघुनन्दन! यह दासुरका आख्यान मैंने तुमसे कहा है। यह जगत् प्रतिविम्ब आकाश के सदृश है, प्रत्यक्ष भासता है तो भी असत्यरूप है। जगत् के निरूपण निमित्त मैंने यह आख्यान तुमको सुनाया है। यह जगत् असवरूप है, कुछ वस्तु नहीं बुद्धि से तुम इसमें राग मत करो। जब इस कथा का सिद्धान्त हृदय में धारण करके विचारोगे तब संसाररूपी मल तुमको स्पर्श न करेगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दासुरोपाख्यानसमाप्तिर्नाम चतुष्पञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५४॥