पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५३९

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स्थिति प्रकरण।


वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! 'यह प्रपञ्च है ही नहीं' ऐसे जान के सब पदार्थों से निराग हो जो वस्तु है ही नहीं उसकी आस्था करनी क्या? इस प्रपञ्च के भासने नभासने से तुमको क्या है? तुम निर्विघ्न होकर आत्मतत्त्व में स्थित हो और ऐसे जानो कि जगत है भी और नहीं भी है। इस निश्चय से भी तुम प्रसंग हो जामो। इस चल अचल दृष्टि आने में तुमको क्या खेद है? हे रामजी! यह जगत् न आदि है, न अनादि है, केवल स्वेतथ का जो चित्त संवित् मनरूप था उसके फुरने से इस प्रकार भासता है, वास्तव में कुछ नहीं। यह जगत किसी कर्ता ने नहीं किया और न किसी अकर्ता ने किया है केवल आभासरूप है और आभास में कर्ता अकर्ता पद को प्राप्त हुआ है पर अकृत्रिमरूप है और किसी का किया नहीं इससे तुमको इससे सम्बन्ध न हो। यह भावना हृदय में धारो कि कुछ नहीं है, क्योंकि किसी कर्ता से नहीं उत्पन्न हुमा, आत्मा सर्व इन्द्रियों से प्रतीत, जड़ की नाई, अक रूप है उसको कर्ता कैसे कहिये। यह कहना नहीं बनता। यह जो जगत्जाल अकस्मात् फुर पाया है सोमाभासरूप है उसमें आसक्त होना क्या है? यह असत् भ्रान्तिरूप है इसमें आस्था मूढ़ बालक करते हैं, बुद्धिमान नहीं करते। स्वरूप में जगत् उपजा नहीं और नाश भी नहीं होता, निरन्तर दृष्टि में पाता है और अज्ञान से बारम्बार भावना होती है तो भी कुछ है नहीं असतरूप है और निरन्तर प्रत्यक्ष नष्ट होता जाता है। तुम विचार करके देखो कि अवस्था और स्थान कहाँ जाते हैं और कहाँ गये हैं? इससे तुम सब इन्द्रियों से अतीत जो आत्मतत्त्व प्रकारूप है उसमें स्थित होकर विगतज्वर हो जाओ। वास्तव में जगत् कुछ बना नहीं पर आत्मसत्ता में बना भासता है। तुम सत्ता में नित्य दृढ़ हो जामो। जैसे हुभा है, तैसे है; भाव अभाव दुःखदशा है। आदर्शरूपी आभास में दीर्घरूप दृश्य स्थित हुआ जैसे हुआ है तेसे ही है, विपर्यय नहीं होता। हे रामजी! दृश्य धर्म में अपराजितकाल है सो अनन्त है, दृश्य पदार्थ का कुछ अन्त नहीं। जो आत्मविचार से देखिये तो स्वप्नवत् है कुछ है नहीं जो वास्तव में ऐसे हो तो उसमें आस्था करके यत्न करना