पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४

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योगवाशिष्ठ।

श्वर! शरीररूपी वृक्ष है उसमें युवावस्थारूपी बेलि प्रकट होती है सो पृष्ट होती जाती है तब चित्तरूपी भँवरा आ बैठता है और तृष्णारूपी उसकी सुगन्ध से उन्मत्त होता है, सब विचार भूल जाता है। जैसे जब प्रबल पवन चलता है तब सूखे पत्रों को उड़ा ले जाता है वैसे ही युवावस्था वैराग्य; सन्तोषादिक गुणों का आभाव करती है। दुःखरूपी कमल का युवावस्थारूपी सूर्य है, इसके उदय से सब दुःख प्रफुल्लित हो आते हैं। इससे सब दुःखों का मूल युवावस्था है। जैसे सूर्य के उदय से सूर्यमुखी कमल खिल आते है वैसे ही चित्तरूपी कमल संसाररूपी पँखुरी और सत्यतारूपी सुगन्ध से खिल आता है और तृष्णारूपी भंवरा उस पर आ बैठता और विषय की सुगन्ध लेता है। हे मुनीश्वर! संसाररूपी रात्रि है उसमें युवावस्थारूपी तारागण प्रकाशते हैं अर्थात् शरीर युवावस्था से सुशोभित होता है। जैसे धान के छोटे वृक्ष हरे तब तक रहते हैं जब तक उसमें फल नहीं आता। जब फल आता है तब वृक्ष सूखने लगते हैं और अन्न परिपक्व होता है वृक्ष की हरियाली नहीं रह सकती वैसे ही जब तक जवानी नहीं आती तब तक शरीर सुन्दर कोमल रहता है जब जवानी आती है तब शरीर क्रूर हो जाता है और फिर परिपक होकर क्षीण और वृद्ध होता है। इससे हे मुनीश्वर! ऐसी दुःख की मूलरूप युवावस्था की मुझको इच्छा नहीं। जैसे समुद्र बड़े जल से तरंगों को पसारता और उछलता है तो भी मर्यादा नहीं त्यागता, क्योंकि ईश्वर की आज्ञा मर्यादा में रहने की है और युवावस्था तो ऐसी है कि शास्त्र और लोक की मर्यादामेट के चलती है और उसको अपना विचार नहीं रहता। जैसे अन्धकार में पदार्थ का ज्ञान नहीं होता वैसे ही युवावस्था में शुभाशुभ का विचार नहीं होता। जिसको विचार नहीं रहा उसको शान्ति कहाँ से हो; वह सदा व्याधि और ताप से जलता रहता है। जैसे जल के बिना मच्छ को शान्ति नहीं होती वैसे ही विचार के बिना पुरुष सदा जलता रहता है। जब युवावस्थारूप रात्रि भाती है तब काम पिशाच आके गर्जता है और यही सङ्कल्प उठते हैं कि कोई कामी पुरुष भावे तो उसके साथ मैं यही चर्चा करूँ कि हे मित्र! वह स्त्री कैसी सुन्दर है और उसके कैसे