पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४०

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योगवाशिष्ठ।

व्यर्थ है जगत् के पदार्थ नाशरूप हैं इनमें आस्था नहीं बनती, क्योंकि आत्मा सत् है और जगत् असत् है इससे अन्योन्य विलक्षण स्वभाव है—जड़ और चैतन्य का संयोग कुछ नहीं बनता। जगत् के पदार्थ आदि स्थिर मानिये तो नहीं रहते, इस कारण आस्था शोभा नहीं पाती। जैसे जल के तरङ्ग का आश्रय लेकर कोई पार हुआ चाहे तो दुःख पाता है, तैसे ही जगत् के पदार्थों का आश्रय करने से जीव दुःखी होता है। जगत् की आस्था करना ही वन्धन है और नाशरूप है। तुम स्थिररूप हो इससे आस्था नहीं सम्भवती। कभी जल के तरङ्ग और पर्वत का सम्बन्ध हुआ है? जो तुमने जगत् को असत्य और आपको सत्य जाना तो भी जगत् के पदार्थों की वाञ्छा नहीं बनती क्योंकि सत्य को असत्य की वाञ्छा नहीं हो सकती ओर असत्य की असत्य में भावना करनी क्या है? जो आप संयुक्त जगत् सत्य जानते हो तो भी वाञ्छा नहीं हो सकती क्योंकि सत्य अद्वैत आत्मा है उसके समीप कुछ द्वैत वस्तु नहीं। तुम तो एक अद्वैत हो, वाञ्छा किसकी करते हो? इससे तुमको किसी पदार्थ की इच्छा अनिच्छा नहीं बनती। हे योपादेय से रहित केवल स्वस्थ होकर अपने भाड़ में स्थित हो जायो। वह आत्मतत्त्व है जो सबका कर्ता और सर्वदा अकर्ता है कदाचित् कुछ नहीं करता और उदासीन की नाइ स्थित है। जैसे दीपक सब पदार्थों को प्रकाश करता है और किसी की इच्छा अपने अर्थ सिद्ध करने के निमित्त नहीं करता-स्वाभाविक ही प्रकाशरूप है, तैसे ही आत्मतत्त्व सबका कर्ता है और उसका कर्त्ता कोई नहीं। जैसे सूर्य सबकी क्रिया को सिद्ध करता है और आप किसी क्रिया का आश्रय नहीं, क्योंकि आप ही प्रकाशरूप है, चलता है और कदाचित् चलायमान नहीं होता और जो सूर्य का प्रतिविम्ब चलता भासता है सो प्रतिविम्ब का चलना सूर्य में नहीं है, तैसे ही तुम्हारा स्वरूप आत्मा सदा अकर्ता अचल है उसमें स्थिर हो। जितना कुछ जगत् भासता है उसमें विचरो परन्तु सद्भावना करके उसमें बन्धायमान मत हो, यह असवरूप है। हे रामजी! यद्यपि प्रत्यक्ष आदिक प्रमाणों से जगत् सत् भासता है तो भी है नहीं। स्वतः