पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४१

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स्थिति प्रकरण।

चित्त होकर आपको विचारो और आप में स्थित हो तब जगत् कुछ न भासेगा। जो प्रत्यक्ष बड़े तेज, बल और वीर्य से सम्पन्न भासता है यदि अन्तर्धान हो गया तो सत्य कैसे कहिये? इस विचार से भी तुमको जगत् की भावना नहीं बनती। जैसे चक्र पर आरूढ़‌ होने से सब स्थान भ्रमते दृष्टि आते हैं और स्वप्ननगर भ्रम से भासता है सो किसी कारण से नहीं होता—आभासरूप मन के फुरने से उपज आता है। जैसे कोई जीव अकस्मात् आ निकलता है तो वह मित्रता का भागी नहीं होता भोर विचार किये बिना बुद्धिमान उसमें रुचि नहीं करते, न वह सुहृदता का पात्र होता है, तैसे ही भ्रम से जो जगत् भासा है वह आस्था करके भावना बाँधने योग्य नहीं। जैसे चन्द्रमा में उष्णता, सूर्य में शीतलता और मृगतृष्णा की नदी में जल की भावना करनी अयोग्य है तैसे ही जगत् में सत्यभावना अयोग्य है। यह संकल्पपुर, स्वप्ननगर, द्वितीय चन्द्रमावत् असत्य है, भ्रम करके सत्य भासता है। हे रामजी! हृदय से भाव पदार्थ की आस्था लक्ष्मी को त्याग करो और बाहर लीला करते विचरो पर हृदय से अकर्ता पद में स्थित रहो और सब भाव पदार्थों में स्थित पर सबसे अतीत रहो। आत्मा सब पदार्थों में सर्वदाकाल स्थित है और सबसे प्रतीत है, उसकी सत्ता से जगत् नीति में स्थित है। जैसे दीपक से सब पदार्थ प्रकाशवान होते हैं पर दीपक इच्छा से रहित प्रकाशता है उससे सबकी क्रिया सिद्ध होती है और जैसे सूर्य आकाश में उदय होता है और उसके प्रकाश से जगत् का व्यवहार होता है, तैसे ही अनिच्छित आत्मा की प्रकाशसत्ता से सब जगत् प्रकाशता है। जैसे इच्छा से रहित रत्न का प्रकाश होता है और स्थान में फैल जाता है, तैसे ही आत्मदेव की सत्ता से जगत्गण प्रवर्तते हैं। वह कर्ता है पर सब इन्द्रियों के विषय से अतीत है इस कारण अकर्त्ता—अभोक्ता है, सब इन्द्रियों के अन्तर्गत स्थित है इस कारण कर्ता भोक्ता वही है। इस प्रकार दोनों आत्मा में बनते हैं कर्ता भोक्ता हो सकता है और अकर्ता अभोक्ता भी है, जिसमें तुम अपना कल्याण जानों उसमें स्थित हो जाओ। हे रामजी! इस प्रकार निश्चय करो कि सब मैं ही हूँ और अकर्ता-अभोक्ता हूँ। ऐसी दृढ़ भावना से जगत्