पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४४

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योगवाशिष्ठ।

इस प्रश्न के पात्र होगे अन्यथा योग्य न होगे—उस अवस्था में अन्यथा प्राप्त नहीं होते। हे रामजी! जैसे सुन्दर स्त्रियों की सुन्दर वाणी से सुन्दर गीत होता है और उसके अधिकारी यौवनवान पुरुष होते हैं तैसे ही सिद्धान्त अवस्था में मेरे वचन के तुम अधिकारी होगे। जैसे रागमयी कया बालक के आगे कहनी व्यर्थ होती है तैसे ही बोधसमय बिना उदार कथा कहनी व्यर्थ होती है। जैसे शरत्काल में वृक्ष पत्रसंयुक्त और वसंत ऋतु में पुष्प से शोभता है तैसे ही जैसी अवस्था पुरुष की होती है तैसा ही उपदेश कहना शोभता है और उपदेश भी तब दृढ़ लगता है जब बुद्धि शुद्ध होती है—मलीन बुद्धि में दृढ़ नहीं होता। जैसे निर्मल वर पर केसर का रङ्ग शीघ्र ही चढ़ जाता है और मलीनवस्त्र पर नहीं चढ़ता, तैसे ही प्राप्तरूप जो आत्मा है उसका विज्ञान उपदेश सिद्धान्त अवस्था वाले को लगता है जिसको बोधसत्ता प्राप्त होती है। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मैंने संक्षेपमात्र कहा भी है—विस्तार से नहीं कहा पर जो तुम नहीं जानते तो भी प्रत्यक्ष है। जब तुम आपसे आपको प्राप्त होगे तब आपही इस प्रश्न के उत्तर को जान लोगे—इसमें कुछ संदेह नहीं। सिद्धान्तकाल में जब तुम बोध को प्राप्त होकर स्थित होगे तब मैं भी इस प्रश्न का उत्तर विस्तार से कहूँगा। जब आपसे अपना पाप निर्मल करोगे तब अपने आपको जान लोगे। हे रामजी! कर्ता और कर्म का विचार जो मैंने तुमसे कहा है उसको विचारकर वासना कात्याग करो। जब तक संसार की वासना इस हृदय में होती है तब तक बन्धवान है और जब वासना दूर होती है तब मुक्त होता है, इससे तुम वासना को त्यागो और मोक्ष के अर्थ जो वासना है उसका भी त्याग करो तब सुखी होगे। इस क्रम से वासना को त्यागकर प्रथम शास्त्रविरुद्ध तामसी वासना का त्याग करो, फिर विषय की वासना का त्याग करो और मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इस निर्मल वासना को अङ्गीकार करो। मैत्री के अर्थ यह हैं कि सबमें ब्रह्मभाव जानना, द्रोह किसी का न करना। दुःखी पर दया करनी करुणा कहलाती है, धर्मात्मा पुरुष को देखके प्रसन्न होने का नाम मुदिता है और आपी को देखके उदासीन रहना भोर निन्दा न करना उपेक्षा कह