पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४५

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स्थिति प्रकरण।

लाती है। इन चारों प्रकार की वासनामों से संपन्न हो हृदय से इनका भी त्याग करके इनका अभिमान न रखना चाहिये यदि बाहर से इनका व्यवहार हो पर हृदय से दुर्वासना त्यागकर चिन्मात्र वासना रखनी चाहिये और पीछे इसको भी मन बुद्धि के साथ मिश्रित त्याग करना तब जिससे वासना त्यागी हैं वह शेष रहेगा तो उसको भी त्याग करना। हे रामजी! चिन्मात्रतत्त्व से कल्पना करके देह, इन्द्रियाँ, प्राण, तम, प्रकाश, वासनादिक भ्रममात्र भासि आये हैं। जब मल अर्थात् अहंकार संयुक्त इनको त्याग करोगे तव आकाशवत् सम स्वच्छ होगे। इस प्रकार सबको त्यागकर पीछे जो तुम्हारा स्वरूप है वह प्रत्यक्ष होगा जो हृदय से इस प्रकार त्यागकर स्थित होता है वह पुरुष मुक्तिरूप परमेश्वर होता है, चाहे वह समाधि में रहे, अथवा कर्म करे वा न करे। जिससे हृदय से सब अर्थों की आस्था नष्ट हुई है वह मुक्त और उत्तम उदारचित्त है। उसका करने, न करने में कुछ हानि-लाभ नहीं और न समाधि करने में पथ है न तप से है, क्योंकि उनका मन वासना से रहित हुआ है। हे रामजी! मैंने चिरकाल पर्यन्त अनेक शास्त्र विचारे हैं और उत्तम उत्तम पुरुषों से चर्चा की है परन्तु परस्पर यही निश्चय किया है कि भली प्रकार वासना का त्याग करे। इससे उत्तम पद पाने योग्य नहीं। जो कुछ देखने योग्य है वह मैंने सब देखा है और दशों दिशाओं में भ्रमा हूँ, कई जन यथार्थदर्शी दृष्टि आये हैं और कितने हेयोपादेयसंयुक्त देखे पर यही यत्न करते हैं और इससे भिन्न कुछ नहीं करते। सब ब्रह्माण्ड का राज्य करे अथथा अग्नि और जल में प्रवेश करे पर ऐसे ऐश्वर्य से संपन्न होकर भी आत्मलाभ विना शान्त नहीं प्राप्त होती। बड़े बुद्धिमान और शान्त भी वही हैं जिन्होंने अपनी इन्द्रियरूपी शत्रु जीते हैं और वही शूरमे हैं उनको जरा, जन्म और मृत्यु का प्रभाव है-वह पुरुष उपासना करने योग्य हैं। हे रामजी! ज्ञानवान को किसी दृश्य पदार्थ में प्रीति नहीं होती, क्योंकि पृथ्वी आदिक पञ्चभूत ही सब ठौर मिलते हैं—त्रिलोकी में इनसे भिन्न और कोई पदार्थ नहीं तो प्रीति किस विधि हो। युक्ति से ज्ञानवान् संसार समुद को गोपदवत् तर जाते हैं पर