पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५४६

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योगवाशिष्ठ।

जिन्होंने युक्ति का त्याग किया है उनको सप्तसमुद्र की नाई संसार हो जाता है। जो पुरुष उदारचित्त हैं उनको यह सम्पूर्ण जगत् कदम्ब स्वप्न के वृक्षवत् हो जाता है, उसमें वे त्याग किसका करें भोर भोग किसका करें। हेयोपादेय से रहित पुरुष को जगत् तुच्छ सा भासता है इस कारण जगत् के पदार्थों के निमित्त वह यत्न नहीं करता और जो दुर्बुद्धि जीव होते हैं वे तुच्छ ब्रह्माण्डरूप पृथ्वी पर युद्ध करते हैं, अनेक जीवों का घात करते हैं और ममता में बन्धायमान हैं यह जगत् संकल्पमात्र में नष्ट हो जाता है क्षण में आस्था से यत्न करना बड़ी मूढ़ता है। सब जगत् आत्मा के एक अंश से कल्पित है, इसकी उपमा तृण समान भी नहीं। इस प्रकारतुच्छरूप त्रिलोकी जो जानकर आत्मवेत्ता किसी पदार्थ के हर्ष शोक में बन्धायमान नहीं होते और ग्रहण और त्याग से रहित हैं। सदाशिव के लोक भादि पाताल पर्यन्त जल, रस, देह, राजस, सात्त्विक, तामस संयुक्त जगत के पदार्थ ज्ञानवान को प्रसन्न नहीं कर सकते और उसकी इच्छा किसी में नहीं होती, क्योंकि वह तो एक अद्वितीयात्मभाव को प्राप्त हुआ है, आकाशवत् व्यापक उसकी बुद्धि होती है, अपने आप में स्थित है चित्त दृश्य से रहित, अचेतन चिन्मात्र है। शरीररूपी जाल जो भयानक कुहिरा है और जिससे जगत् धूसर हो रहा है सो तिस पुरुष का शान्त हो जाता है और द्वितीय वस्तु का प्रभाव होता है ब्रह्मरूपी बड़ा समुद्र है उसके झागवत् कुलाचल पर्वत है, चेतनरूपी सूर्य में मृगतृष्णा की नदीरूपी जगत् की लक्ष्मी है और ब्रह्मरूपी समुद्र में जगवरूपी तरङ्ग उठते और लय होते हैं, ऐसे जाननेवाला जो ज्ञानवान है उसको यह जगत् आनन्ददायक कैसे हो? सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि जो तुमको प्रकाशरूपी भासते हैं वे भी घट काष्ठ के आदिकवत् जहरूप हैं और जिससे यह प्रकाशते हैं वह सबको सिद्धकर्ता आत्मसत्ता है और कोई नहीं। देह जो रुधिर, मांस और अस्थि से बनी है और इन्द्रियों से वेष्टित है उस देह रूपी डब्बे में चेतन जीवरूप रत्न विराजता है, चेतन बिना जड़ मुग्धरूप है। हे रामजी! यह जो स्त्री की देह भासती है सो चर्म की पुतली बनी है, उसको देखके मूढ प्रसन्न होता है। जैसे वायु के