पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५५

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वैराग्य प्रकरण।

कटाक्ष हैं। वह किस प्रकार मुझको प्राप्त हो? हे मुनीश्वर! इस इच्छा में वह सदा जलता ही रहता है। जैसे मरुस्थल की नदी को देख मृग दौड़ता है और जल की अप्राप्ति से जलता है वैसे ही कामी पुरुष विषय की वासना से जलता है और शान्ति नहीं पाता। हे मुनीश्वर! मनुष्य जन्म उत्तम है परन्तु जिनके अभाग्य हैं उनको विषय से आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती। जैसे किसी को चिन्तामणि प्राप्त हो और वह उसका निरादर करे उसका गुण न जानकर डाल दे वैसे ही जिस पुरुष ने मनुष्यशरीर पाकर आत्मपद नहीं पाया वह बड़ा अभागी है और मूर्खता से अपने जन्म को व्यर्थ खो डालता है वह युवावस्था में परम दुःख का क्षेत्र अपने निमित्त बोता है और मान, मोह, मद इत्यादि विकारों से पुरुषार्थ का नाश करता है। हे मुनीश्वर! युवावस्था ऐसे बड़े विकारों को प्राप्त करती है। जैसे नदी वायु से अनेक तरङ्ग पसारती है वैसे ही युवावस्था चित्त के अनेक कामों को उठाती है। जैसे पक्षी पंख से बहुत उड़ता है और जैसे सिंह भुजा के बल से पशु को मारने दौड़ता है वैसे ही चित्त युवावस्था से विक्षेप की ओर धावता है। हे मुनीश्वर! समुद्र का तरना कठिन है क्योंकि उसमें जल अथाह है उसका विस्तार भी बड़ा है और उसमें कच्छ अच्छ मगर भी बड़े बड़े जीव रहते हैं पर मैं उसका तरना भी सुगम मानता हूँ परन्तु युवावस्था का तरना महाकठिन है अर्थात् युवावस्था में निर्दोष रहना कठिन है। ऐसी संकटवाली युवावस्था में जा चलायमान नहीं होते सो पुरुष धन्य हैं और वन्दना करने योग्य हैं। हे मुनीश्वर! यह युवावस्था चित्त को मलीन कर डालती है। जैसे जल की बावली के निकट राख और काँटे हों और पवन चलने से सब आ बावली में गिरें वैसे ही पवनरूपी युवावस्था दोषरूपी धूल और काँटों को चित्तरूपी बावली में डाल के मलीन कर देती है। एसे अवगुणों से पूर्ण युवावस्था की इच्छा मुझको नहीं है। युवावस्था मुझ पर यही कृपा कर कि तेरा दर्शन न हो। तेरा आना मैं दुःख का कारण मानता हूँ। जैसे पुत्र के मरण का संकट पिता नहीं सह सकता और सुख का निमित्त नहीं देखता वैसे ही तेरा आना मैं सुख का निमित्त नहीं देखता। इससे मुझपर