पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५५१

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स्थिति प्रकरण।

संसार बड़ा स्थित होकर अज्ञान से भासता है। यह तो सङ्कल्प से रचा है, सङ्कल्प के वश से जगत् की क्रिया फैलाता है, सङ्कल्पवश से दैवनीति होकर स्थित हुआ है और सब ब्रह्मा के सङ्कल्प में स्थित है। जब उसका सङ्कल्प निर्वाण होता है तब जगत् भी लय हो जाता है। एक समय ब्रह्माजी पद्मासन पर बैठे थे और विचारने लगे कि यह जगत्जाल मन के सङ्कल्प फुरनेमात्र है मन के फुरने से उपज आता है और नाना प्रकार के विचारसंयुक्त व्यवहार, इन्द्र, उपेन्द्र, मनुष्य, दैत्य, समुद्र, पर्वत, पाताल, पृथ्वी से लेकर सर्व जगत्जाल मायामात्र और बड़ा फैल रहा है इसलिये अब मैं इससे निवृत्त होऊँ। ऐसे विचार उन्होंने अनर्थरूप सङ्कल्प को दूर करके, आदि-अन्तरहित अनादिमत परम ब्रह्माकार आत्मारूप आत्मतत्त्व में मन लय किया और आनन्दरूप आत्मा होकर अपने आप में स्थित होकर निर्मल निरहंकार परमतत्त्व को प्राप्त हुए। जैसे कोई व्यवहार से थका हुआ विश्राम करता है तैसे ही वह अपने आपसे आत्मतत्त्व में स्थित हुए। जैसे समुद्र अक्षाभ होता है तैसे वह प्रक्षोभ हुए और ध्यान में लगे और फिर जब ध्यान से जगे तो जैसे द्रवता से समुद्र से तरङ्ग फुर भावें तैसे ही चित्त के वश से ब्रह्माजी फुरनरूप हो गये तव जगत् को देखके फिर चिन्तन करने लगे कि संसार दुःख, सुख से संयुक्त अनन्त फाँसी से बन्धायमान है और राग, द्वेष, भय, मोह से दूषित है। हे रामजी! इस प्रकार जीवों को देख के ब्रह्माजी को दया उपजी तो अध्यात्मज्ञान से सम्पन्न वेद उपनिषद् और वेदान्त प्रकट किये और बड़े अर्थसंयुक्त नाना प्रकार के शास्त्र रचे। फिर जीवों की मुक्ति के निमित्त पुराण रचे और परमपद जो आपदा से रहित है उसमें स्थित हुआ। जैसे मन्दराचल पर्वत के निकले से क्षीर समुद्र शान्त होता है तैसे ही शान्तरूप होकर स्थित हुभा और फिर उसी प्रकार जाग के जगत् को देख मर्यादा में लगाया फिर कमलपीठ में स्थित होकर आत्मतत्त्व के ध्यानपरायण हुआ। इसी प्रकार जो कुछ अपने शरीर की मर्यादा ब्रह्माजी ने की है उसी प्रकार नीति के संस्कारपर्यन्त क्रीड़ा करते हैं और कुलाल के चक्रवत् नीति के अनुसार विचरते हैं। जैसे