पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५५२

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योगवाशिष्ठ।

ताड़ना और वासना से रहित चक्र फिरता है तैसे ही वह जन्म-मरण से रहित है। उसको शरीर के रखने और त्यागने की कुछ इच्छा नहीं भोर न कुछ जगत् की स्थिति और न अनस्थिति में इच्छा है। वह किसी पदार्य. के प्रहण और त्याग की भावना में श्रासन नहीं होता और सबमें समबुद्धि परिपूर्ण समुद्रवत् स्थित है। कभी सब सङ्कल्प से रहित शान्तरूप हो रहते है और कभी अपनी इच्छा से जगत् रचते हैं परन्तु उनको जगत् के रचने में कुछ भेद नहीं-सर्व पदार्थों की अवस्था में तुलना है। हे रामजी! यह मैंने तुमसे ब्रह्माजी की स्थिति कही है यह परमदशा ओर भी किसी देवता को उपजे तो उसको समता जानिये, क्योंकि वह शुद्ध सात्त्विकरूप है। सृष्टि के आदि जो शुद्ध ब्रह्मतत्त्व में चित्तकला फरी है वही मनकला ब्रह्मरूप होकर स्थित हुई है। जब फिर जगत् के स्थिति क्रम में कलना उत्पन्न होती है तब वही ब्रह्मारूप आकाश पवन को आश्रय लेकर औषध और पत्रों में प्रवेश करती है। कहीं देवता भाव को, कहीं मनुष्यभाव को, कहीं पशुपक्षी तिर्यगादिकभाव में प्राप्त होती है और कहीं चन्द्रमा की किरण द्वारा अनादिक औषध में प्राप्त होती है। जैसे भाव को लेकर चित्तकला फुरती है तैसा ही भाव शीघ्र उत्पन्न हो पाता है। कोई उपजकर संसार के संसर्गवश से उसी जन्म के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें अपने स्वरूप का चमत्कार होता है, कोई अनेक जन्म से मुक्त होते हैं और कोई थोड़े जन्म से मुक्त होते हैं। हे रामजी! इस प्रकार जगत् का क्रम है। कोई प्रत्यक्ष, सङ्कट, कर्म, बन्ध, मोक्षरूप उपजते हैं और कोई मिट जाते हैं। इस प्रकार संसार वन्धमोक्ष से पूर्ण है। जब यह कलना मल नष्ट होता है तब संसार से मुक्त होता है और जब तक कलना मल है तब तक संसार भासता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिपकरणे कमलजाव्यवहारो नामाष्टपञ्चाशत्तमस्सर्गः॥५८॥

वशिष्ठजी बोले, हे महाबाहो, रामजी! इस प्रकार ब्रह्माजी ने निर्मल पद में स्थित होकर सर्ग फैलाया। संसाररूपी कूप में जीव भ्रमते हैं और जीवरूपी टीड़ी तृष्णारूपी रस्सी से बंधे हुए कभी अधः और कभी ऊर्ध्व