पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५५३

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स्थिति प्रकरण।

को जाते हैं। जब वासनारूपी रस्सी टूट पड़ती है तब ब्रह्मतत्त्व से उठे ब्रह्मतत्त्व में एकत्र हो जाते हैं। ब्रह्मसत्ता से जीव उपजते हैं और फिर ब्रह्मसत्ता में ही लय होते हैं। जैसे समुद्र से मेघ जलकण के धून दारा उपजते हैं और फिर वर्षा से उसी में प्रवेश करते हैं, तैसे ही जब तन्मात्रा मण्डल से चित्तकला निकलती है तब उसी के साथ जीव एकरूप हो जाते हैं। जैसे मन्दारवृक्ष के पुष्प की सुगन्ध वायु से मिलकर एकरूप हो जाती है तैसे ही चित्तकला जीवतन्मात्रा से मिलकर प्राण नाम पाती है। इस प्रकार प्राणवायु से आदि तन्मात्रा जीवकला को खंचने लगता है जैसे बड़े प्रचण्ड दैत्य के समूह देवताओं को बैंचें तैसे ही बचा हुआ जीव तन्मात्रा से एकरूप हो जाता है। जैसे गन्ध ओर वायु तन्मय होते हैं तैसे ही वह प्राण तन्मात्रा जीव के शरीर में वीर्यस्थान में जा पास होता है और जगत् में उपजकर प्राण प्रत्यक्ष होते हैं। कई धूम्रमार्ग से देहवान के शरीर में प्रवेश करते हैं और कई मेघ में प्रवेश कर बुन्दमार्ग से औषध में रसरूप होकर स्थित होते हैं। और उसको भोजन करनेवाले के भीतर वीर्यरूप होकर स्थित होते हैं। कई और प्राणवायु द्वारा प्रकट होते हैं और चर स्थावररूप होते हैं, कई पवनमार्ग से धान के खेत में चावलरूप स्थित होते हैं और उनको जीव भोजन करते हैं तो वीर्य में प्राप्त होते हैं और नाना प्रकार के रङ्ग भेद से प्राण धर्म उपजते और कोई उपजनेमात्र से जीव की परम्परा तन्मात्रा से वेष्टित जब तक चन्द्रमा उदय नहीं हुआ आकाश में स्थित होते हैं और जब चन्द्रमा उदय होता है तब उसका रस जोशीतल किरणों और श्वेत क्षीरसमुद्रवत् है उसमें जा प्राप्त होते हैं और उसके अन्तर्गत होकर पात्र औषध में स्थित होते हैं। जैसे कमल पर भँवरे आ स्थित होते हैं तैसे ही औषध में जाकर जीव स्थित होते हैं और फल में स्वादरूप होकर स्थित होते हैं। जैसे गन्ना रस से पूर्ण होता है तैसे ही जीव से औषध ओर फल पूर्ण हो जाते हैं। जैसे दूध से स्तन पूर्ण होते हैं तैसे ही जीव से फल पूर्ण होते हैं। जब वे फल परिपक होते हैं तो उनको देहधारी भक्षण करते हैं और उसमें जीव वीर्य और जडात्मकरूप होकर स्थित होते हैं।