पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५५५

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स्थिति प्रकरण।

आचार नहीं करता, तैसे ही वे सत्यमार्ग में विवरते हैं और हृदय से पूर्ण शान्तरूप हैं। जैसे चन्द्रमा की कला क्षीण होती है तो भी वह अपनी शीतलता नहीं त्यागता, तैसे ही ज्ञानवान आपदा के प्राप्त हुए भी मलीनता को नहीं प्राप्त होते। वे सर्वदाकाल मैत्री आदिक गुणों से सम्पन्न रहते हैं, और सदा उनसे शोभते हैं। समतारूप जो समरस है उससे वे पूर्ण और शान्तरूप हैं और निरन्तर शुद्ध समुद्रवत् अपनी मर्यादा में स्थित रहते हैं। हे रामजी! तुम भी महापुरुषों के मार्ग में सदा चलो और जो मार्ग परमपावन, आपदा से रहित और सात्त्विकी है उसके अनुसार चलो तब आपदा के समुद्र में न डूबोगे। जैसे वे खेद से रहित जगत् में विचरते हैं तैसे ही विचरो। जिस क्रम से राजस से सात्त्विकी मोक्षभागी होता है सो सुनो! प्रथम आर्यभाव को प्राप्त होना अर्थात् यथाशास्त्र सदयवहार करना तो उससे अन्तःकरण शुद्ध होता है। उस आर्यपद को पाकर सन्तों के साथ मिलकर बारम्बार सत्शास्त्रों को विचारना और जो संसार के भनित्य पदार्थ हैं उनमें प्रीति न करना। विरक्तता उपजानी और जो त्रिलोकी के पदार्थों के उपजने विनशने में सत्यरूप है बारम्बार उसकी भावना करनी और दूसरी भावना शीघ्र ही मिथ्या जानकर त्यागनी। जो कुछ दृश्य जगत् भासता है वह असम्यक् दृश्य है। निष्फल, नाशरूप और व्यर्थ जानकर भावना त्यागनी और सम्यकूतान को स्मरण करना। सन्तजन औरसतशास्त्र जोबान के सहायक हैं उनके साथ मिलके विचार करना कि मैं कौन हूँ और जगत् क्या है? भली प्रकार प्रयत्न करके विवेक संयुक्त सदा अध्यात्मशास्त्र का विचार करना और सत्य व्यवहार भोर सात्त्विकी कर्म करना और अवज्ञा करके मृत्यु को विस्मरण न करना। जो मृत्यु विस्मरण करके संसार कार्य में लग जाता है वह इवता है, इससे स्मरण करके सन्मार्ग में लगना और जिस पद में महाउदार और शीतलचित्त बानी पुरुष स्थित है उस पद के मार्ग और दर्शन में सदा इच्छा रखनी। जैसे मोर को मेघ की इच्छा रहती है। हे रामजी! अहंकार जो देह में स्थित है यह देह संसार में उपजी है, इसको भली प्रकार विचार करके नाश करो। यह सांसारिक देह रुधिर, मांस, मजा आदिक