पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५५६

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योगवाशिष्ठ।

की बनावट है। जितने भूतजात हैं वे सब चेतनरूपी ताग में मोती पिरोये हैं, उन भूतों को त्याग करके चिन्मात्रतत्व को देखो। चेतनसत्ता सत्य, नित्य और विस्तृतरूप है और शुद्ध, सर्वगत और सर्वभाव उसमें है। वह त्रिलोकी का भूषण आश्रयभूत है जो चेतन आकाश सूर्य में है। वही चेतन पृथ्वी के छिद्र में कीट है जैसे घटाकाश और महाकाश में भेद कुछ नहीं तैसे ही शरीर और चेतन में भेद नहीं। जैसे सब मिरचों में तीक्ष्णता एक ही है तैसे ही सर्वभूतों में चेतनता एकही अनुस्यूत है अनुभव से जानता है। उस एक चिन्मात्र में भिन्नता कहाँ से हो? एक सत्यसत्ता जो निरन्तर चिन्मात्र वस्तुरूप है उसमें जन्म मरण मादिक ज्ञान से भासता है, वास्तव में न कोई उपजा है और न मरता है, एक आत्मतत्त्व सदा ज्यों का त्यों स्थित है। और उसमें जगत् विकार आभासमात्र है, न सत्य है न असत्य है। चित्त के फुरने से भासता है और चित्त के शान्त हुए शान्त हो जाता है। जो जगत् को सत्य मानिये तो अनादि हुआ इससे भी शोक किसी का नहीं बनता। और जो जगत् असत्य मानिये तो भी शोक का स्थान नहीं बनता। इससे दृढ़ विचार करके स्थित हो और शोक को त्यागो। तुमको न जन्म है और न मरण है—आकाशवत् निर्मल सम शान्तरूप हो जाओ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे मोक्षविचारो नाम षष्टितमस्सर्गः॥६०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो धैर्यवान पुरुषबुद्धिमान हैं वे सतशास को विचारें, सन्तजनों का संग करके उनका प्राचार ग्रहण करें और जो दुःख की नाशकर्ता श्रेष्ठ ज्ञानदृष्टि है उसको यत्न करके अङ्गीकार करें तब सजनता प्राप्त होगी। सन्तजन जो विरक्तात्मा हैं उनसे मिलकर जब सत्रशास्त्र को विचारें तब परमपद मिलता है। हे रामजी! जो पुरुष सत्शास्त्र का विचारनेवाला है और सजनों का संग तथा वैराग्य अभ्यास आदरसंयुक्त करता है वह तुम्हारी नाई विज्ञान का पात्र है। तुम तो उदारात्मा हो और धैर्यवान् के जो गुण शुभाचार हैं उनके समुद्र हो निर्दुःख होकर स्थित हो। अब राजसी से सात्त्विकी और मनन शील हुए हो फिर ऐसे दग्धरूप संसार में दुःख के पात्र न होगे। यह तुम्हारा