पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५५७

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स्थिति प्रकरण।

अन्त का जन्म है जो अपने स्वभाव की ओर धावते हो अन्तर्मुख यत्न करते हो, निर्मल दृष्टि तुमको प्रकट हुई है और आत्म वस्तु को जानते हो जैसे सूर्य के प्रकाश से यथार्थ वस्तु का ज्ञान होता है। अब मेरे वचनों की पंक्ति से सर्वमल दूर हो जावेंगे—जैसे अग्नि से धातु का मल जल जाता है तैसे ही तुम्हारा मल जल जायेगा और निर्मलता से शोभायमान होगे जैसे मेघ के नष्ट हुए शरत्काल का आकाश शोभता है तैसे ही संसार में भावना से मुक्त होकर चिन्ता से रहित निर्मलभाव से शोभोगे। अहं, ममादि कल्पना से मुक्त हुए ही मुक्त हैं इसमें कुछ संशय नहीं। हे रामजी! तुम्हारा जो यह अनुभव और उत्तम व्यवहार है उसके अनुसार विचरोगे तो तुम अशोक पद पावोगे। और जो कोई इस व्यवहार को बर्तेगा वह भी संसारसमुद्र को अनुभवरूपी बेड़े से तर जावेगा। तुम्हारे तुल्य जिसकी मति होगी वह समदर्शी जन ज्ञानदृष्टि योग्य है। जैसे कान्तिमान् सुन्दरता का पात्र पूर्णमासी का चन्द्रमा होता है। तुम तो अशोकदशा को प्राप्त हुए हो और यथाप्राप्ति में वर्तते हो। जब तक देह है तब तक राग द्वैष से रहित स्थिरबुद्धि रहो ओर यथाशास्त्र जो उचित आचार है उन्हें बर्ता करो पर हृदय में सर्वकल्पना से रहित शीतल चित्त हो-जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा शीतल होता है। हे रामजी! इन सात्त्विक और राजस से-सात्त्विक से भिन्न जो तामसी जीव हैं उनका विचार यहाँ न करना, ये सियार हैं और मद्यादिक के पीनेवाले हैं, उनके विचार से क्या प्रयोजन है? जो मैंने तुमसे सात्त्विकी जन कहे हैं उनके संग से बुद्धि अन्त के जन्म की होती है और जो तामसी हैं वह भी उनको सेवे तो उनकी बुद्धि भी उदार हो जाती है। जिस जिस जाति में जीव उपजता है उस जाति के गुण से शीघ्र ही संयुक्त हो जाता है। पूर्व जो कोई भाव होता है वह जाति के वश से वहाँ जाता रहता और जिस जाति में वह जन्मता है उसके गुणों को जीतने का पुरुषार्थ करता है, तब यत्न से पूर्व के स्वभाव को जीत लेता है। जैसे धैर्यवान शूरमा शत्रु को जीत लेता है। जो पूर्व संस्कार मलीन है तो धैर्य करके मलीन बुद्धि का उद्धार करे—जैसे मुग्ध