पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५५९

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ॐ सच्चिदानन्दाय नमः।

श्रीयोगवाशिष्ठ

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पञ्चल उपशम प्रकरण प्रारम्भ।

इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले, हे साधो! अब स्थितिपकरण के अनन्तर उपशम प्रकरण कहता हूँ जिसके जानने से निर्वाणता पावोगे। जब वशिष्ठजी ने इस प्रकार वचन कहे तब सब सभा ऐसी शोभित हुई जैसे शरत्काल के आकाश में तारागण शोभते हैं। वशिष्ठजी के वचन परमानन्द के कारण हैं। ऐसे पावन वचन सुनके सब मौन हो गये और जैसे कमल की पंक्ति कमल की सानि में स्थित हो तैसे ही सभा के लोग और राजा स्थित हुए। स्त्रियाँ जो झरोखों में बैठी थीं उनके महाविलास की चञ्चलता शान्त हो गई और घड़ियालों के शब्द जो गृह में होते थे वे भी शान्त हो गये। शीश पर चमर करनेवाले भी मूर्विवत् अचल हो गये और राजा से आदि लेकर जो लोग थे वे कथा के सम्मुख हुए। रामजी बड़े विकास को प्राप्त हुए—जैसे प्रातःकाल में कमल विकासमान होता है और वशिष्ठजी की कही वाणी से राजा दशरथ ऐसा प्रसन्न हुआ जैसे मेघ की वर्षा से मोर प्रसन्न होता है। सबके चञ्चल वानररूपी मन विषय भोग से रहित हो स्थित हुए और मन्त्री भी सुन के स्थित हो रहे और अपने स्वरूप को जानने लगे। जैसे चन्द्रमा की कला प्रकाशती है तैसे ही आत्मकला प्रकाशित हुई और लक्ष्मण ने अपने लक्षस्वरूप को देखके तीनबुद्धि से वशिष्ठजी के उपदेश को जाना। शत्रुघ्न जो शत्रुओं को मारनेवाले थे उनका चित्त अति आनन्द से पूर्ण हुआ और जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा स्थित होता है तैसे मन्त्रियों के हृदय में मित्रता हो गई और मन शीतल और हृदय प्रफुल्लित हुना। जैसे सूर्य के उदय हुए कमल तत्काल विकासमान होता है। और और जो मुनि, राजा भोर ब्राह्मण स्थित थे उनके रत्नरूपी चित्त स्वच्छ और निर्मल हो