पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६

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योगवाशिष्ठ।

दया कर कि अपना दर्शन न दे। हे मुनीश्वर! युवावस्था का तरना महा कठिन है। यौवनवान् नम्रतासंयुक्त नहीं होते और शास्त्र के गुण वैराग्य विचार संतोष और शान्ति इनसे भी सम्पन्न नहीं हैं। जैसे आकाश में वन होना आश्चर्य है वैसे ही युवावस्था में वैराग्य, विचार, शान्ति और संतोष होना भी बड़ा आश्चर्य है। इससे आप मुझसे वही उपाय कहिये जिससे युवावस्था के दुःख से मुक्ति होकर आत्मपद की प्राप्ति हो।

इतिश्रीयोगवाशिष्ठेवैराग्यप्रकरणेयुवागारुडीवर्णनत्रामपञ्चदशस्सर्गः१५

श्रीरामजी बोले, हे मुनीश्वर! जिस कामविलास के निमित्त पुरुष त्री की वाञ्छा करता है वह स्त्री अस्थि, मांस, रुधिर, मूत्र और विष्ठा से पूर्ण है और इन्हीं की पुतली बनी हुई है। जैसे यन्त्री की बनी पुतली तागे के द्वारा अनेक चेष्टा करती है वैसे ही यह अस्थि, मांसादिक की पुतली में कुछ और नहीं है। जो विचार से नहीं देखता उसको रमणीय दीखती है। जैसे पर्वत के शिखर दूर से सुन्दर और गङ्ग माला सहित भासते हैं और निकट से आसार हैं—पत्थर ही पत्थर दिखते हैं वैसे ही स्त्री वस्त्र और भूषणों से सुन्दर भासती है। जो अंग को भिन्न भिन्न विचारकर देखो तो सार कुछ नहीं। जैसे नागिन के अंग बहुत कोमल होते हैं परन्तु उसका स्पर्श करे तो काट के मार डालती है वैसे ही जो कोई स्त्री को स्पर्श करते हैं उनकोवहनाशकर डालती है। जैसे विषकी बलि देखने मात्र सुन्दर लगती है परन्तु स्पर्श करने से मार डालती है और जैसे हाथी को जंजीर से बाँधे तो जिस बार रहता है वहीं स्थिर रहता है वैसे ही अज्ञानी का चित्तरूपी हाथी कामरूपी जंजीर से बँधा हुभा स्त्रीरूपी एक स्थान में स्थिर रहता है वहाँ से कहीं जा नहीं सकता। जब हाथी को महावत अंकुश का प्रहार करता है तब वह बन्धन को तोड़ के निकल जाता है वैसे ही इस चित्तरूपी मूर्ख हाथी को जब महावतरूपी गुरु उपदेशरूपी अंकुश का वारंवार प्रहार करता है तब निर्बन्ध होता है। हे मुनीश्वर! कामी पुरुषस्त्री की वाञ्छा अपने नाशके निमित्त करता है। जैसे कदली वन का हाथी कागद की हथिनी देखकर और छल पाके बन्धन में आता है और उससे परम दुःख पाता है वैसे ही सब दुःखों का मूल