पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६०

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योगवाशिष्ठ।

गये। जब मध्याह्न काल का समय हुआ ओर बाजे बजकर उनके ऐसे शब्द हुए जैसे प्रलयकाल में मेघों के शब्द होते हैं और उन बड़े शब्दों से मुनीश्वरों का शब्द आच्छादित हो गया—जैसे मेघ के शब्द सें कोकिला का शब्द दब जाता है। तब वशिष्ठजी चुप हो गये और एक मुहूर्तपर्यन्त शब्द होता रहा। जब घनशब्द शान्त हुआ तब मुनीश्वर ने रामजी से कहा, हे रामजी! जो कुछ भाज मुझे कहना था वह मैं कह चुका अब कल फिर कहूँगा। यह सुन सर्वसभा के लोग अपने-अपने स्थानों को गये और वशिष्ठजी ने राजा से लेकर रामजी आदि से कहा कि तुम भी अपने-अपने घरों में जावो। सबने चरणवन्दना और नमस्कार किया और जो नभचारी, वनचारी और जलचारी थे उन सबको विदाकर आप भी अपने-अपने स्थानों को गये और ब्राह्मण की सुन्दरवाणी को विचारते और अपने-अपने अधिकार की क्रिया दिन को करते रहे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे पूर्वदिनवर्णनन्नाम प्रथमस्सर्गः॥१॥

इतना कहकर फिर वाल्मीकिजी बोले, हे भारदाज! इस प्रकार अपनेअपने स्थानों में सब यथाउचित क्रिया करने लगे। वशिष्ठजी, राजा, राघव, मुनि और ब्राह्मणों ने अपने-अपने स्थानों में स्नान आदिक क्रिया की और गौ, सुवर्ण, भन्न, पृथ्वी, वन, भोजन आदिक ब्राह्मणों को यथायोग्य पात्र दान दिये। सुर्वण और रत्नों से जड़े स्थानों में आकर राजा ने देवताओं का पूजन किया और कोई विष्णु का और सदाशिव का, कोई अग्नि का और किसी ने सूर्य आदिक का पूजन किया। तदनन्तर पुत्र, पौत्र, सुहृद, मित्र, वान्धवसंयुक्त नानाप्रकार के उचित भोजन किये। इतने में दिन का तीसरा पहर आया तब सबने अपने सम्बन्धियों संयुक्त और भौर क्रिया की ओर जब साँझ हुई और सूर्य अस्त हुआ तब सायंकाल की विधि की और अघअर्षण गायत्री आदिक का जाप किया और पाठस्तोत्र और मनोहर कथा मुनीश्वरों की कही। फिर रात्रि हुई तब त्रियों ने शय्या विवाई और उन पर वे विराजे पर रामजी बिना सबको रात्रि एक मुहूर्तवत् व्यतीत हुई। रामजी स्थित होकर वशिष्ठजी के वचन की पंक्तियों को विचारने लगे कि जिसका नाम