पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६१

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उपशम प्रकरण।

संसार है इसमें भ्रमने का पात्र कोन है, नाना प्रकार के भूतजात कहाँ से आते हैं, कहाँ जाते हैं, मन का स्वरूप क्या है, शान्ति कैसे होती है, यह माया कहाँ से उठी है, और कैसे निवृत्त होती है, निवृत्त हुए विशे. षता क्या होती है, नष्ट किसकी होती है, अनन्तरूप जो विस्तृत आत्मा है उसमें अहंकार कैसे होता है, मन के क्षय होने और इन्द्रियों के जीतने में मुनीश्वरों ने क्या कहा है और आत्मा के पाने में क्या युक्ति कही है? जीव, चित्त, मन और माया सब ही एकरूप है, विस्ताररूप संसार इसने ही रचा है और जैसे प्राह ने हाथी को बाँधा था और वह कष्ट पाता था तेसे ही भसवरूप संसार में बंधकर जो जीव कष्ट पाते हैं उस दुःख के नाश करने के निमित्त कौन भौषष है। भोगरूपी मेघमाला में मोहित हुई मेरी बुद्धि मलिन हो गई है, इसको मैं किस प्रकार शुद्ध करूँ। यह तो भोग के साथ तन्मय हो गई है और मुझको भोगों के त्यागने की सामर्थ्य भी नहीं, भोगों के त्यागने के विना बढ़ी आपदा है और उनके संहारने की भी सामर्थ्य नहीं। बड़ा आश्चर्य है और हमको बड़ा कष्ट प्राप्त हुभा है। आत्मपद की प्राप्ति मन के जीतने से होती है और वेदशास्त्र के कहने का प्रयोजन भी यही है। गुरु के वचनों से भ्रम नष्ट हो जाता है—जैसे बालक को परवाही में वैताल भासता है—उस भ्रम को जैसे बुद्धिमान दूर करता है तेसे ही मनरूपी भ्रम को गुरु दूर करते हैं। वह कौन समय होगा कि मैं शान्ति पाऊँगा और संसारभ्रम नष्ट हो जावेगा। जैसे यौवनवान स्त्री प्रियपति को पाके सुख से विश्राम करती है, तैसे ही मेरी बुद्धिमात्मा को पाके कब विश्रामवान होगी। नाना प्रकार के संसार के आरम्भ मेरे कब शान्त होंगे और कब मैं आदि अन्त से रहित पद में विश्रान्तवान् होऊँगा। मेरा मन कब पावन होगा और पूर्णमासी के चन्द्रमावत् सम्पूर्ण कला से सम्पन होकर स्वच्छ, शीतल और प्रकाशरूप पद में कब स्थित होऊँगा। मैं कब जगत् को देखके हँसूंगा और कब मलीन कलना को त्याग के आत्मपद में स्थित होऊँगा। कब मैं मन को संकल्प विकल्प से रहित शान्त रूप देखुँगा—जैसे तरङ्ग से रहित नदी शान्तरूप दीखती है। तृष्णा