पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६५

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उपशम प्रकरण।

वचनों से हम निष्पाप हुए हैं। आत्मदर्शन के निमित्त हम प्रवर्त्तते हैं। आपने हमको परम अञ्जन दिया है उससे हम सचक्षु हैं और संसार रूपी कुहिरा हमारा निवृत्त हुआ है जैसे कल्पवृक्ष की बता और अमृत का स्नान आनन्द देता है तैसे ही उदारबुद्धि की वाणी आनन्ददायक हती है। इतना कहकर बाल्मीकिजी बोले कि ऐसे वशिष्ठजी से कहकर रामजी की और मुख करके दशरथजी ने कहा, हे राघव! जो काल सन्तों की संगति में व्यतीत होता है वही सफल होता है और जो दिन सत्संग विना व्यतीत होता है वह वृथा जाता है। हे कमलनयन, रामजी! तुम फिर वशिष्ठजी से कुछ पूछो तो वे फिर उपदेश करें—वे हमारा कल्याण चाहते हैं। बाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार राजा दशरथ ने कहा तब रामजी की ओर मुख करके उदार आत्मा वशिष्ठ भगवान बोले कि हे राघव! अपने कुलरूपी भाकाश के चन्द्रमा! मैंने जो वचन कहे थे तुमको स्मरण आते हैं उन वाक्यों का अर्थ स्मरण में है और पूर्व और अपर का कुछ विचार किया है? हे महाबोधवान्, महाबाहो। और अज्ञानरूपी शत्रु के नाशकर्ता! सात्त्विक, राजस और तामस गुणों के भेद की उत्पत्ति जो विचित्ररूप है वह मैंने कही है। तुम्हारे चित्त में है सर्व भी वही है, असर्व भी वही है सत्य भी वही है और असत्य भी वही है और शान्त सदा अद्वैतरूप है। परमात्मादेव का विस्तृतरूप स्मरण है। जैसे विश्व ईश्वर से उदय हुमा है वह स्मरण है, यह जो देववाणी है इसका पात्र शुद्ध चित्त है, अशुद्ध नहीं। हे सत्यबुद्धे, रामजी! अविद्या जो विस्तृतरूप भासती है उसका रूप स्मरण है? अर्थ से शून्य, क्षणभंगुररूप, सम्यक् दर्शन से रहित निर्जीव है। यह जो लवण के विचार दारा मैंने प्रतिपान किया है वह भली भाँति स्मरण है? और वाक्यों का समूह जो मैंने तुमसे कहा है उनको रात्रि में विचार के हृदय में धारा है? जब पुरुष बारम्बार विचारते हैं और तात्पर्य हृदय में धारते हैं तब बड़ा फल पाते हैं और जो अवज्ञा से मर्थ का विस्मरण करते हैं तो फल नहीं पाते। हे रामजी! तुम तो इन वचनों के पात्र हो जैसे उत्तम बाँस में मोती फलीभूत होते हैं और में