पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६३
उपशम प्रकरण।

रहित होना परम कल्याण है। यही भावना हृदय में क्यों नहीं करते? जब तक जड़ धर्मी है अर्थात् विषय भोगों में आस्था करता है और आत्मतत्त्व से शून्य रहता है तबतक मूढ रहता है, जबतक स्वरूप का प्रमाद है तबतक हृदय से संसार का तम और किसी प्रकार दूर नहीं होता। चन्द्रमा उदय हो और अग्नि का समूह हो वा दादश सूर्य इकटे उदय हो तो भी हृदय का तम किंचिवमात्र भी दूर नहीं होता और जब स्वरूप को जानकर आत्मा में स्थित हो तब हृदय का तम नष्ट हो जावेगा। जैसे सूर्य के उदय हुये जगत् का अन्धकारनष्ट होता है। जब तक आत्मपद का बोध नहीं होता और भोगों में मन तरूप है तबतक संसारसमुद्र में बहे जावोगे मोर दुःख का अन्त न भावेगा। जैसे आकाश में धलि भासती है परन्तु आकाश को धूलि का सम्बन्ध कुछ नहीं और जैसे जल में कमल भासता है परन्तु जल से स्पर्श नहीं करता, सदा निर्लेप रहता है, तेसे ही पात्मा देह से मिश्रित भासता है परन्तु देह से आत्मा का कुछ स्पर्श नहीं, सदा विलक्षण रहता है जैसे सुवर्ण कीच और मल से अलेप रहता है। देह जड़ है आत्मा उससे भिन्न है और सुख दुःख का अभिमान मात्मा में भासता है वह भ्रममात है। जैसे भाकाश में दूसरा चन्द्रमा भोर नीलता असत्यरूप है तैसे ही प्रात्मा में सुख दुःखादि असत्यरूप हैं। सुख दुःख देह को होता है, सबसे प्रतीत आत्मा में सुख दुःख का अभाव है। यह भवान करके कल्पित है, देह के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता, इससे सुख दुःख भी आत्मा में कोई नहीं, सर्वात्मामय शान्तरूप है। यह जो विस्तृत रूप जगत् दृष्टि आता है वह मायामय है, जैसे जल में तरङ्ग और आकाश में तस्वरे भासते हैं तैसे ही आत्मा में जो जगत् भासता है सो आत्मा ही है, न एक है, न दो है सबआभास हैं और मिथ्यादृष्टि से आकार भासते हैं। जैसे मणि का प्रकाश मणि से भिन्न नहीं भौर जैसे अपनी छाया दृष्टि पाती है तैसे ही आत्मा का प्रकाशरूप जो जगत् भासता है वह सब ब्रह्मरूप है। मैं और हूँ, यह जगत् भोर है, इस भ्रम को त्याग करो, विस्तृतरूप ब्रह्मघनसत्ता में और कोई कल्पना नहीं। जैसे जल में तरङ्ग कुछ भिन्न वस्तु नहीं